तितली के रंगीन परों सी जीवन में सारे रंग भरे चंचलता उसकी आँखों में चपलता उसकी बातों मे थिरक थिरक क

Tuesday, December 10, 2019


10/12/19
मानवाधिकार दिवस
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इस सभ्य सुसंस्कृत उन्नत समाज में
मानव लड़ रहा अधिकारों के लिए
क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था बनती ,सभी
सिर उठा कर जिये,समता का भाव लिए ।

शिक्षा ,कानून आजादी ,धर्म भाषा
काम  हो सबका मौलिक अधिकार
क्या कभी चिंतन कर सुनिश्चित किया
क्यों नहीं बना अब तक वो उसका हक़दार।

समता के नाम पर क्या किया तुमने
आरक्षण का झुनझुना थमा हीन साबित किया
बांटते रहे रेवड़ियाँ अपने फायदे के लिए
सब्सिडी और कर्ज माफी से उन्हें बाधित किया।

मानव अधिकार की बातें कही जाती हैं
अधिकार के नाम पर भीख थमाई जाती है
देने वाला भी खुश और लेने वाला भी खुश
इस लेनदेन में जनता की गाढ़ी कमाई जाती है।

क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था बनाई जाती है
जहां अधिकार की बातें बेमानी हो जाए
ना कोई भूखा सोए ,न शिक्षा से वंचित हो
भेदभाव मिट जाए,हर हाथ को काम मिल जाये ।

योजनाएं तो बनाते हो पर लाभ नहीं मिलता
बिचौलिए मार्ग में बाधक बन तिजोरी भरते है
कानून का अधिकार है,लड़ाई लंबी चलती है
लड़ने वाला टूट गया बाकी सब जेबें भरते है।

महंगी शिक्षा व्यवस्था है कर्ज ले कर पढ़ते है
नौकरी  गर न मिली  तो कर्ज कैसे चुकायेगें
कर्ज देने मे भी बीच के लोग कुछ  खायेंगे
बेचारा किसान  दोनो तरह से चपेटे में आएंगे।

आयोग बना देने से,एक दिवस मना लेने से
रैली निकाल लेने से ,कुछ नहीं होगा
मानव पहल तुम करो ,दूसरे के अधिकार मत छीनो
खोई हुई प्रतिष्ठा  के वापस लाने के हकदार बनो


अनिता सुधीर

2 comments:

  1. अनिता जी आपकी इस रचना ने (कु)व्यवस्था, (कु)नीति के हर पहलू के बदबूदार पक्ष को छेड़ा है। क्षण भर को ये बदबू चुभ सकती है तथाकथित सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज के बुद्धिजीवियों की साँसों को।
    पर कभी , कहीं और किसी को तो पहल करना ही होगा। ये बदबूदार कूड़े को कुरेदने होंगे।
    काश ! ये आवाज़ और इसका मार्मिक तीखापन हर एक के हृदय के जीभ का जायका बदल पाता। काश !...

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    1. सुबोध जी मन की व्यथा शब्दों में उतर आती है ,लिखने से भी क्या होगा ,
      इस व्यवस्था के लिये सबको एक छोटा प्रयास ही करना होगा ,कि वो स्वयं सुधरे ।पर सब इसी का हिस्सा हैं ।आ0 आआपके स्नेह के लिए आभार

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