नवगीत
कल्पना उड़ती हुई ये
पूछती हर बार,
क्या चलोगे साथ मेरे
तुम गगन के पार ।
कितने सावन बीत गये
कभी बुझी न प्यास,
मन धरा बंजर तरसता
बूँद की थी आस ,
व्यथित हृदय चातक बन के
रहा फलक निहार
क्या चलोगे साथ मेरे ,
तुम गगन के पार ।
अश्व पर हों साथ हम जो
लगती तेरे अँग,
आओ भर लें जीवन में
इंद्रधनुष के रँग ।
छोर पकड़े धूप के हम
रथ पर हो सवार ।
क्या चलोगे साथ मेरे ,
तुम गगन के पार ।
बनी हैं सहगामिनी जो
बारिश की बूंदे,
कल्पनाओं में विचरते
मन दादुर कूदे
चाँद का टीका पहन लें,
हों सितारे हार
क्या चलोगे साथ मेरे ,
तुम गगन के पार ।
अनिता सुधीर
कल्पना उड़ती हुई ये
पूछती हर बार,
क्या चलोगे साथ मेरे
तुम गगन के पार ।
कितने सावन बीत गये
कभी बुझी न प्यास,
मन धरा बंजर तरसता
बूँद की थी आस ,
व्यथित हृदय चातक बन के
रहा फलक निहार
क्या चलोगे साथ मेरे ,
तुम गगन के पार ।
अश्व पर हों साथ हम जो
लगती तेरे अँग,
आओ भर लें जीवन में
इंद्रधनुष के रँग ।
छोर पकड़े धूप के हम
रथ पर हो सवार ।
क्या चलोगे साथ मेरे ,
तुम गगन के पार ।
बनी हैं सहगामिनी जो
बारिश की बूंदे,
कल्पनाओं में विचरते
मन दादुर कूदे
चाँद का टीका पहन लें,
हों सितारे हार
क्या चलोगे साथ मेरे ,
तुम गगन के पार ।
अनिता सुधीर
.. वाकई बेहतरीन पंक्तियां क्या चलोगे साथ मेरे गगन के पार.. मनुहार ,प्यार से उद्धृत पंक्तियां कविता को एक नया रूप दे रही हैं
ReplyDeleteजी सादर अभिवादन
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