*हिंदी*
*नवगीत*
राजभाषा ले लकुटिया
पग धरे हर द्वार तक
राह में अवरोध अनगिन
हीनता का दंश दें
स्वामिनी का भाव झूठा
मान का कुछ अंश दें
ये दिवस की बेड़ियां भी
कब लड़ें प्रतिकार तक।।
हूक हिय में नित उठे जो
सौत डेरा डालती
छीन कर अधिकार वो फिर
बैर मन में पालती
कष्ट का हँसता अँधेरा
बादलों के पार तक।।
अब घुटन जो बढ़ रही है
कंठ का फन्दा कसा
खोल उर के पट सभी अब
धड़कनों में फिर बसा
अब अतिथि की वेशभूषा
छल रही श्रृंगार तक।।
अनिता सुधीर आख्या
हिंदी की दुर्दशा के ज़िम्मेदार हम हिंदुस्तानी ही हैं ।
ReplyDeleteजी सही कहा
Deleteसादर आभार