नारी
ये मूक खामोश औरतें
ख्वाहिशों का बोझ ढोते-ढोते
सदियों से वर्जनाओं में जकड़ी
परम्पराओं और रुढियों
की बेड़ियों मे बंधी
नित नए इम्तिहान से गुजरती
हर पल कसौटियों पर परखी जाती ..
पुरुषों के हाथ का खिलौना बन
बड़े प्यार से अपनों से ही छली जाती ..
बिना अपने पैरों पर खड़े
बिना रीढ़ की हड्डी के,
ये अपने पंख पसारती ..
कंधे से कंधा मिला कर चलती
सभी जिम्मेदारियाँ निभाती
खामोशी से सब सह जाती
आसमान से तारे तोड़ लाने
की हिम्मत रखती है
तभी नारी वीरांगना कहलाती है ।
ये क्या एक दिन की मोहताज है..
नारी !गलती तो तुम्हारी है
बराबरी का अधिकार माँग
स्वयं को तुम क्यों कम आँकती ..
तुम पुरुष से श्रेष्ठ हो
बाहुबल मे कम हो भले
बुद्धि ,कौशल ,सहनशीलता
में श्रेष्ठ हो तुम
अद्भुत अनंत विस्तार है तुम्हारा
पुष्प सी कोमल हो
चट्टान सी कठोर हो
माँ की लोरी ,त्याग ममता में हो
बहन के प्यार में हो
पायल की झंकार में हो
बेटी के मनुहार में हो ..
नारी !नर तुमसे है
सृजनकारी हो तुम
अनुपम कृति हो तुम..
आत्मविश्वास से भरी
अविरल निर्मल हो तुम ..
चंचल चपला मंगलदायिनी हो तुम
नारी !वीरांगना हो तुम।
अनिता सुधीर आख्या
अनुपम
ReplyDeleteसादर धन्यवाद
DeleteBhut sunder varnan kia
ReplyDeleteसादर धन्यवाद
Deleteसटीक सार्थक बात कही है सखी सुंदर सृजन।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद सखि
Deleteसुंदर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद
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