गीतिका
नियम-युद्ध उर ने लड़ा है।
उलझता हुआ-सा खड़ा है।।
समय चक्र की रेत में धँस
वहीं रक्तरंजित पड़ा है।।
रही भिन्नता कर्म में जब
भरा पाप का फिर घड़ा है।।
विलग भाव की नीतियों ने
तपन ले मनुज को जड़ा है।।
जमी धूलि कबसे पुरातन
विचारें कहाँ पल अड़ा है।।
सदी-नींव को जो सँभाले
बचा कौन-सा अब धड़ा है।।
लिए भाव समरस खड़ा जो
वही आज युग में बड़ा है।।
समर में विजय कर सुनिश्चित
जगत मिथ्य भू में गड़ा है।।
अनिता सुधीर आख्या
वाह!
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