भार
दोहा मुक्तक
1)
ज्ञान नहीं लय शिल्प का,समझ न मात्रा भार ।
छन्द सृजन कैसे करें , नहीं शब्द भंडार।।
"सहित" सृजन है साधना,डूबे जो दिन रात,
अनुपम कृति साहित्य की ,तब लेती आकार ।।
2)
करते हो चरितार्थ क्यों,बैल मुझे आ मार।
वृक्ष काटते जा रहे ,जो जीवन आधार।
संतति इनको जानिये ,पूजें देव समान,
उत्तम पानी खाद से ,लें पालन का भार ।।
3)
संस्कृति का अब ह्रास है,हुई सभ्यता भार।
भूल गये संकल्प वो ,जो जीवन आधार ।
नीति नियम से थामिये ,नैतिकता की डोर,
उन्नत जीवन का रहे ,कीर्ति पताका सार ।।
4)
भेद भाव ये किसलिए, बेटी समझे भार।
मात पिता के प्रेम पर ,दोनों का अधिकार।
कुरीतियों पर वार कर ,रचिये सभ्य समाज ,
बेटियों को शिक्षित करें,सृजन जगत आधार।।
5)
सेना सीमा पर खड़ी ,ले रक्षा का भार ।
सोते हम सब चैन से ,हँस कर सहती वार।
कफन तिरंगे का पहन ,रखा देश का मान,
व्यर्थ नहीं बलिदान हो,खायें शपथ हजार ।
6)
अंतहीन क्यों हो रहा ,इच्छाओं का भार ।
मृगतृष्णा की आस में ,भटक रहा संसार ।
बढ़ता गठरी भार ये ,जाना खाली हाथ ,
सतकर्मों की पोटली ,भवसागर से पार ।।
अनिता सुधीर
लखनऊ
दोहा मुक्तक
1)
ज्ञान नहीं लय शिल्प का,समझ न मात्रा भार ।
छन्द सृजन कैसे करें , नहीं शब्द भंडार।।
"सहित" सृजन है साधना,डूबे जो दिन रात,
अनुपम कृति साहित्य की ,तब लेती आकार ।।
2)
करते हो चरितार्थ क्यों,बैल मुझे आ मार।
वृक्ष काटते जा रहे ,जो जीवन आधार।
संतति इनको जानिये ,पूजें देव समान,
उत्तम पानी खाद से ,लें पालन का भार ।।
3)
संस्कृति का अब ह्रास है,हुई सभ्यता भार।
भूल गये संकल्प वो ,जो जीवन आधार ।
नीति नियम से थामिये ,नैतिकता की डोर,
उन्नत जीवन का रहे ,कीर्ति पताका सार ।।
4)
भेद भाव ये किसलिए, बेटी समझे भार।
मात पिता के प्रेम पर ,दोनों का अधिकार।
कुरीतियों पर वार कर ,रचिये सभ्य समाज ,
बेटियों को शिक्षित करें,सृजन जगत आधार।।
5)
सेना सीमा पर खड़ी ,ले रक्षा का भार ।
सोते हम सब चैन से ,हँस कर सहती वार।
कफन तिरंगे का पहन ,रखा देश का मान,
व्यर्थ नहीं बलिदान हो,खायें शपथ हजार ।
6)
अंतहीन क्यों हो रहा ,इच्छाओं का भार ।
मृगतृष्णा की आस में ,भटक रहा संसार ।
बढ़ता गठरी भार ये ,जाना खाली हाथ ,
सतकर्मों की पोटली ,भवसागर से पार ।।
अनिता सुधीर
लखनऊ
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