गीतिका
मानव हृदय विचार, समझना दूभर है।
बात- बात पर रार, समझना दूभर है।।
प्रेम अनोखी नीति, त्याग की निष्ठा की
जीत कहें या हार, समझना दूभर है।।
रखे दोहरी नीति, मुखौटा पहने सब
अजब जगत व्यापार, समझना दूभर है।।
देश-प्रेम अनमोल, भाव यह सर्वोपरि
बनते क्यों गद्दार, समझना दूभर है।।
बढ़ा मनुज का लोभ, कर्म भी दूषित अब
झेले क्यों संसार , समझना दूभर है।।
संस्कृति पर आघात, सहे जीवन जीता
कहाँ धनुष टंकार, समझना दूभर है।।
हृदय प्रेम की डोर, उलझती ही जाती
ढीला क्यों आधार ,समझना दूभर है।।
सत्य हुआ जब मौन, न्याय भी चुप बैठा
छपे झूठ अखबार, समझना दूभर है।।
कम होते संवाद, मूल्य कम रिश्तों का
किसे कहें परिवार, समझना दूभर है।।
अनिता सुधीर
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार 30 मई 2022 को 'देते हैं आनन्द अनोखा, रिश्ते-नाते प्यार के' चर्चा अंक 4446 पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
हार्दिक आभार आ0
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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