नवगीत
पीर का आतिथ्य
पीर के आतिथ्य में अब
भाव सिसके मीत के
दीमकें मसि पी रहीं नित
खोखले-से भाव हैं
खिलखिलातीं व्यंजनाएँ
द्वंद्व के टकराव हैं
भाष्य भी फिर काँपता
वस्त्र पहने शीत के।।
थक चुकी मसि लेखनी की
ढूँढ़ती औचित्य को
पूछती वह आज सबसे
क्यों लिखूँ साहित्य को
रूठ बैठी लेखनी फिर
भाव खोकर गीत के।।
दाव सहती भित्तियों में
छंद अब कैसे खड़े
शब्द जो मृदुहास करते
कुलबुला कर रो पड़े
लेखनी की नींद उड़ती
आस में नवनीत के।।
अनिता सुधीर आख्या
थक चुकी मसि लेखनी की, ढूँढ़ती औचित्य को; पूछती वह आज सबसे -
ReplyDeleteक्यों लिखूँ साहित्य को ? आपकी गूढ़ काव्याभिव्यक्ति का सार संभवतः इन्हीं पंक्तियों में अंतर्निहित है।
सादर आभार
Deleteबहुत सुन्दर नवगीत ...
ReplyDeleteसादर आभार आ0
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