Thursday, December 22, 2022

नवगीत

नवगीत

पीर का आतिथ्य

पीर के आतिथ्य में अब
भाव सिसके मीत के

दीमकें मसि पी रहीं नित
खोखले-से भाव हैं
खिलखिलातीं व्यंजनाएँ
द्वंद्व के टकराव हैं
भाष्य भी फिर काँपता
वस्त्र पहने शीत के।।

थक चुकी मसि लेखनी की
ढूँढ़ती औचित्य को
पूछती वह आज सबसे
क्यों लिखूँ साहित्य को
रूठ बैठी लेखनी फिर 
भाव खोकर गीत के।।

दाव सहती भित्तियों में
छंद अब कैसे खड़े
शब्द जो मृदुहास करते
कुलबुला कर रो पड़े
लेखनी की नींद उड़ती
आस में नवनीत के।।

अनिता सुधीर आख्या

4 comments:

  1. थक चुकी मसि लेखनी की, ढूँढ़ती औचित्य को; पूछती वह आज सबसे -
    क्यों लिखूँ साहित्य को ? आपकी गूढ़ काव्याभिव्यक्ति का सार संभवतः इन्हीं पंक्तियों में अंतर्निहित है।

    ReplyDelete

संसद

मैं संसद हूँ... "सत्यमेव जयते" धारण कर,लोकतंत्र की पूजाघर मैं.. संविधान की रक्षा करती,उन्नत भारत की दिनकर मैं.. ईंटो की मात्र इमार...