तितली के रंगीन परों सी जीवन में सारे रंग भरे चंचलता उसकी आँखों में चपलता उसकी बातों मे थिरक थिरक क

Tuesday, September 15, 2020

चलते चलते

 'शब्द युग्म '


चलते चलते

चाहों के अंतहीन सफर 

मे  दूर बहुत दूर चले आये

खुद ही नही खबर 

क्या चाहते हैं 

राह से राह बदलते

चाहों के भंवर जाल में 

उलझते गिरते पड़ते 

कहाँ चले जा रहे है ।


कभी कभी 

मेरे पाँवों के छाले

तड़प तड़प पूछ लिया करते हैं

चाहतों का सफर

अभी कितना है बाकी 

मेरे पाँव अब थकने लगे है

मेरे घाव अब रिसने लगे है

आहिस्ता आहिस्ता ,रुक रुक चलो

थोड़ा थोड़ा  मजा लेते चलो।


हँसते हँसते 

बोले हम अपनी चाहों से

कम कम ,ज्यादा ज्यादा 

जो  जो भी पाया है 

सहेज समेट लेते है

चाहों की चाहत को

अब हम विराम देते है

सिर्फ ये चाह बची है कि

अब कोई चाह न हो ।


अनिता सुधीर

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