भाग्य की हँसती लकीरें
जब पिता उनको सजाता
पाँव नन्हें याद में अब
स्कंध का ढूँढ़ें सहारा
उँगलियाँ फिर काँध चढ़ कर
चाहतीं नभ का किनारा
प्राण फूकें पाँव में वह
सीढ़ियाँ नभ तक बनाता।।
भाग्य की हँसती लकीरें
जब पिता उनको सजाता
जोड़ता संतान का सुख
भूल कर अपनी व्यथा को
जब गणित में वो उलझता
तब कहें जूते कथा को
फिर असीमित बाँटने को
सब खजाना वो लुटाता।।
भाग्य की हँसती लकीरें
जब पिता उनको सजाता।।
छत्रछाया तात की हो
धूप से जीवन बचाते
दुख बरसते जब कभी भी
बाँध छप्पर छत बनाते
और अम्बर हँस पड़ा फिर
प्यास धरती की बुझाता।।
भाग्य की हँसती लकीरें
जब पिता उनको सजाता।।
अनिता सुधीर आख्या
अति सुंदर
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२०-०६-२०२२ ) को
'पिता सबल आधार'(चर्चा अंक -४४६६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteअद्भुत
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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