Sunday, June 19, 2022

पिता



भाग्य की हँसती लकीरें

जब पिता उनको सजाता


पाँव नन्हें याद में अब

स्कंध का ढूँढ़ें सहारा

उँगलियाँ फिर काँध चढ़ कर

चाहतीं नभ का किनारा

प्राण फूकें पाँव में वह

सीढ़ियाँ नभ तक बनाता।।

भाग्य की हँसती लकीरें

जब पिता उनको सजाता


जोड़ता संतान का सुख

भूल कर अपनी व्यथा को

जब गणित में वो उलझता

तब कहें जूते कथा को

फिर असीमित बाँटने को

सब खजाना वो लुटाता।।

भाग्य की हँसती लकीरें

जब पिता उनको सजाता।।


छत्रछाया तात की हो

धूप से जीवन बचाते

दुख बरसते जब कभी भी

बाँध छप्पर छत बनाते

और अम्बर हँस पड़ा फिर 

प्यास धरती की बुझाता।।

भाग्य की हँसती लकीरें

जब पिता उनको सजाता।।


अनिता सुधीर आख्या


7 comments:

  1. अति सुंदर

    ReplyDelete
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२०-०६-२०२२ ) को
    'पिता सबल आधार'(चर्चा अंक -४४६६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    ReplyDelete

संसद

मैं संसद हूँ... "सत्यमेव जयते" धारण कर,लोकतंत्र की पूजाघर मैं.. संविधान की रक्षा करती,उन्नत भारत की दिनकर मैं.. ईंटो की मात्र इमार...