तुरपन
याद आती है
माँ की वो हिदायतें
जो वो
दिया करतीं थीं...
तुरपन
इतनी महीन करना
दूसरी ओर दिखे न धागा..
मैं ग़लतियाँ करती रही
सुई कई बार ऊँगलियों में चुभी
टीस उठती रहती
धागा दूसरी और दिखता ही रहा ...
अब
जीवनके पन्ने पलट कर
देखते हैं
तो सोचते हैं
माँ तुम्हारी आकांक्षाओं पर
तब तुरपन
सही थी या नहीं
पर अब माँ
इन महीन धागों से
महीन तुरपन कर
अधरों को सी रखा है ...
माँ अब ..
दूसरों को दिखता नहीं धागा
रिश्तों को बाँध रखा है
सहेजने में टीस उठती है
कुछ दिल में चुभती है
इस सहेजने बाँधने में
तुरपन
टूटने का देर रहता है
पर माँ बहुत मेहनत से
आपने जो तुरपन सिखाई थी
उसका मान रखना है न माँ ...
अनिता सुधीर आख्या
बहुत बहुत
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteअधरों को सी रखा है ....
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण रचना ।
हार्दिक आभार आ0
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