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*अंतस ने अपनी पीर कही*
आहत हो कर अंतस सोचे,कैसे पीर अपार लिखें।
रंग बदलते मानव के नित,कैसे क्षुद्र विकार लिखें।।
पढ़े चार अक्षर ये ज्ञानी,नित्य बखेड़ा करते जब
अपशब्दों का दौर चला है,कैसा जग व्यवहार लिखें।।
दूजे कंधे पर पग रखकर,अपनी राह बनाई जब
पूरा जीवन स्कंध कराहे,कैसे जग के वार लिखें।।
घात सहे नित पाषाणों से,उनको धीर धरे सहता
सहन शक्ति औषधि बन पूछे,कैसे नित उपचार लिखें।।
रखे ताक पर चिंतन मंथन,कूप अहम से भरते जन
कलम तड़पती जब मेरी ये,कैसे लेखन धार लिखें।।
अनिता सुधीर आख्या
दूजे कंधे पर पग रखकर,अपनी राह बनाई जब
ReplyDeleteपूरा जीवन स्कंध कराहे,कैसे जग के वार लिखें।।
बेहतरीन ग़ज़ल ।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (5-07-2021 ) को 'कुछ है भी कुछ के लिये कुछ के लिये कुछ कुछ नहीं है'(चर्चा अंक- 4116) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
हार्दिक आभार आ0
Deleteवाह!बेहतरीन सृजन।
ReplyDeleteपढ़े चार अक्षर ये ज्ञानी,नित्य बखेड़ा करते जब
अपशब्दों का दौर चला है,कैसा जग व्यवहार लिखें..वाह!
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteअनिता जी
रखे ताक पर चिंतन मंथन,कूप अहम से भरते जन
ReplyDeleteकलम तड़पती जब मेरी ये,कैसे लेखन धार लिखें।।
अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
हार्दिक आभार आ0
Deleteबहुत सुंदर भावभीनी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
ReplyDeleteबहुत उत्तम अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
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