मुक्तक
ग़मों को उठा कर चला कारवां है।
बनी जिंदगी फिर धुआं ही धुआं है।।
जहां में मुसाफ़िर रहे चार दिन के
दिया क्यों बशर ने सदा इम्तिहां है।।
अनिता सुधीर आख्या
नवगीत छिना घरौंदा! ममता तड़पी आंतों में जब अग्नि जली फसल खड़ी इतराती थी जब आतंकी बरसात हुई खलिहानों की भूख बढ़ी थी और मनुज की मात हुई कुपित म...
सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद हरीश जी
Deleteवाह
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका
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