Thursday, September 26, 2024

नदी की रेत प्यासी

नवगीत

*नदी की रेत प्यासी*


है नदी की रेत प्यासी 
नाव के फिर भाग्य फूटे।।

दौड़ कर जीवन चला है
जाल में उलझा हुआ सा
डोर भी फिर ढूँढ़ती है
हो सिरा सुलझा हुआ सा
नित विषय कितने भटकते 
लेखनी के मार्ग छूटे।।

अब समन्दर भी तरसता
प्यास तृष्णा की लगाकर
चाँद को लहरें मचलती
स्वप्न को फिर से जगाकर
मन विचारों को पकड़ता
भाव को अवरोध कूटे ।।


कौन हूँ मैं क्या प्रयोजन
द्वंद्व अंतस ने लड़ा है
लक्ष्य खोया सा भटकता
प्रश्न भी अब तक खड़ा है
उर तिजोरी रिक्त अब तक
धैर्य मन का आज टूटे।।


अनिता सुधीर आख्या 

3 comments:

  1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
    सादर।
    ------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    ReplyDelete
  2. सादर आभार आपका आ0

    ReplyDelete

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