माँ का आत्ममंथन
मंथन चिंतन माता करती,
होम किया जीवन जिसने
खाद लाड़ की अधिक पड़ी क्या
या आँखों पर थी पट्टी
पल निद्रा अभिशाप बनी है
सोच जलाती उर भट्टी
आज अनुभवी इन आँखों से
नींद चुराई है किसने।।
यही वेदना कबसे सहती
पग पग पर दुर्योधन है
पुत्र स्वयं का कहीं खड़ा हो
करे नीच सम्बोधन है
नहीं सुरक्षित दूजी बेटी
अब यह घाव लगे रिसने।।
तेरे कृत्यों पर शर्मिंदा
साथ न अब तेरा दूँगी
धूल झोंकते जो आँखों में
खुले नैन निद्रा लूँगी
दो पाटों की धुरी सँभाले
क्यों दूँ मैं खुद को पिसने।।
अनिता सुधीर आख्या
मोह के मारे हुओं का यही हश्र होता है
ReplyDeleteहार्दिक आभार अनिता जी
Deleteबहुत खूब यथार्थपरक रचना।
ReplyDeleteBahut bahut dhanyawad aapka
ReplyDeleteमन के किसी गहरे दर्द को उकेरा है
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद
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