तितली के रंगीन परों सी जीवन में सारे रंग भरे चंचलता उसकी आँखों में चपलता उसकी बातों मे थिरक थिरक क

Saturday, February 29, 2020

वैमनस्य

रस्सी जलती ,ऐंठन रहती
कब  पकड़ोगे दूजा छोर
वैमनस्य का कारण ढूंढो
झांक जरा भीतर की ओर


एक डाल के सब पंछी है,
जग में रहते कोयल ,काग ,
जो हो मीठी,कर्कश वाणी
रखिये पर उर में अनुराग ।
मत बनिये मन कोयल काला
तन काले का भावे शोर
वैमनस्य का कारण ढूंढो
झांक जरा भीतर की ओर।


अब मौसम बदले पल पल में
जब तब खेलें खूनी फाग
ठंडक में है गरमी लगती
अपनी ढपली अपना राग।
दिया सीख दूजों को करते,
उर सागर में बसता चोर ,
वैमनस्य का कारण ढूंढो
झांक जरा भीतर की ओर।


सहन शक्ति सीता की भूले
भूले पन्ना माँ  का त्याग,
बोझ अहम् का बढ़ता जाता,
जले स्वार्थ की उर मेँ आग।
घना  कोहरा दूर भगाओ
प्रेम रश्मि से हो अब भोर
वैमनस्य का कारण ढूंढो
झांक जरा भीतर की ओर

©anita_sudhir

Friday, February 28, 2020

परीक्षा

परीक्षा काल निकट आया
सबका चैन उसने चुराया ।
कहानी घर घर की हुई
तू दिन भर क्या करता है ?
राजू देखो कितना पढ़ता है
उससे नंबर कम आये
तो मोबाइल तुम नही पाये ।
ऐसी बातें घर घर की
बच्चे पाते ज्यादा भाव
नहीं रखते कोई अभाव
 सँग में देते ये तनाव
दूध बादाम तुम खा लो
 प्रतियोगिता में दौड़ लगा लो
सबसे आगे रहना है
कम से कम सत्तानवे तो करना है ।
दिन वो जब शुभ आया
परीक्षा कक्ष में खुद को पाया
देख कर पेपर सिर चकराया
गणित के सवालों ने घुमाया
भौतिक के सिद्धांतों में उलझे
कहीं रासायनिक समीकरण गड़बड़ाया
सबकी महत्वाकांक्षाओं ने सिर उठाया ।
हक्का बक्का  वो खड़ा हुआ
अवसादों में घिरा हुआ
जीने से आसान मौत लगी
उसे प्यार से गले लगाया
और सन्नाटा ....अंधकार
अखबार की सुर्खी बनी
एक प्रश्नचिन्ह
समाज के माथे बना गया
दोष कहाँ
शिक्षा व्यवस्था में या
परीक्षा  प्रणाली में
प्रतिस्पर्धा या
प्रतिद्वंदिता में
शिक्षक के पठन पाठन में
या छात्र के मानसिक स्तर में
मां पिता के उम्मीदों में
कारण जो भी रहा
जिंदगी टूटती है
और यदि ये भार सहन नहीं
तो जीवन में कदम कदम पर परीक्षा
उसका  क्या ?

अनिता सुधीर





















Wednesday, February 26, 2020

पाषाण

अनगढ़  पुरातन  काल पाषाण
जीवन था पत्थर पर निर्भर
जली थी अग्नि घर्षण से
मानव दिल में था आकर्षण।
पाषाण से करते  आखेट
साधन भरण पोषण का ,
आवश्यकता जीवन यापन
अनगढ़ पुरातन काल पाषाण।
               क्या पता  गर्भ में !
भविष्य अब यह होगा
अब अग्नि से हुए घृणा पूर्ण कार्य
मानव दिल  हुआ पाषाण
बढ़ता  हृदय में विकर्षण ।
अब पत्थर से दे रहे आघात
घात लगा  निर्बल को
चीखें ,और त्रास ही त्रास
क्यों नहीं पिघलता मानव पाषाण।
दर्द संवेदना  लुप्त हो रहीं
व्यथित नहीं,
परपीड़ा से हृदय ।
परिवार अपने में सिमटते हुए ।
पाषाण मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा
भूखे नंगे दम तोड़ते
पाषाण मूर्ति पर सुसज्जित आभूषण
मानव मत बन तू पाषाण
अनगढ़ पुरातन काल  पाषाण ।
मत जाओ पुरातन काल
आया एक कालखंड बाद
ये सुविधापूर्ण आधुनिक काल
साध इसे संतुलन ,आकर्षण से
मानव मत बन तू पाषाण
अनगढ़ पुरातन काल पाषाण ।

अनिता सुधीर"आख्या"
#हिंदी_ब्लॉगिंग

Tuesday, February 25, 2020

दोहावली

ताकत के मद में रहे ,कुछ सत्ता आरूढ़ ।
करते अनर्थ !अर्थ का,बुद्धिहीन ये मूढ़ ।।

कार्य अतिरिक्त सौंपते ,हनन हुये अधिकार।
नियुक्ति तदर्थ कीजिये,सुचारुता हो सार ।।

शंका अनर्थ निर्मूल है ,कर समर्थ विश्वास।
ले तदर्थ की चाह अब ,पूरी करिये आस ।।

घृणित कार्य उन्माद में,भूलते राष्ट्रवाद।
आग लगाते देश में,ये कैसा अवसाद ।।

दूर करें अवसाद को,छोड़ें वाद विवाद ।
देश प्रेम उन्माद में,फूँक बिगुल का नाद ।।

गौरान्वित हैं हम सभी,हुआ देश आजाद ।
आजादी के नाम पर ,कैसा करें जिहाद।।

धर्म जाति बदलाव का ,मुद्दा प्रेम जिहाद ।
असली मुद्दा  भूलते ,....फैलाते उन्माद ।।

हुआ मार्ग अवरुद्ध ये ,निकल पड़ी बारात ।
नाचें गाते  झूमते ,...........भूले यातायात ।।

द्वारे वंदनवार है  ,आयी शुभ बारात ।
डोली बेटी की सजी ,खुशियों की सौगात ।।

अब दहेज की मांग पर,वापस हो बारात ।
बेटी कम मत आंकिये,बने सहारा तात ।।

वो निरीह रोता रहा ,लौट गई बारात ।
बिकने को तैयार थे ,नहीं सुने वो बात ।।

विष का प्याला पी गये ,वो सुकरात महान ।
जीवन दर्शन उच्चतम, कैसे करें बखान ।।

मसि कागद छूये नहीं,दोहे रचे कबीर ।
कालखंड के सत्य  में ,उपजी मन की पीर।।

सत्य आचरण जानिये  ,कहते दास कबीर ।
रूढ़िवाद पर चोट कर ,कही बात गंभीर।।

#hindi_blogging#हिन्दी_ब्लॉगिंग

अनिता सुधीर "आख्या"

Sunday, February 23, 2020

पीर विरह की


नव गीत
निश्चल छन्द पर आधारित
***
पंक्ति
पीर जलाती आज विरह की ,बनती रीत।
**
पीर जलाती आज विरह की,
बनती रीत,
मिले प्रेम में घाव सदा से,
बोलो मीत ।

विरह अग्नि में मीरा करती ,
विष का पान,
तप्त धरा पर घूम करें वो,
कान्हा गान ।
कुंज गली में  राधा ढूँढे ,
मुरली तान ,
कण कण से संगीत पियें वो,
रस को छान ।
व्यथित हृदय से कृष्ण खोजते,
फिर वो प्रीत ,
पीर जलाती आज विरह की,
बनती रीत ।

तड़प तड़प कर कैसे जीये ,
राँझा हीर,
अलख निरंजन जाप करे वो ,
टिल्ला वीर।
बेग!माहिया बन के तड़पे ,
रक्खे धीर,
विरह अग्नि सोहनी की बुझे ,
नदिया तीर।
 ब्याह रचाते चिनाब में वो ,
मौनी मीत ,
पीर जलाये आज विरह फिर,
बनती रीत ।

जन्मों के वादे कर हमसे,
पकड़ा हाथ,
विरह की वेदना को सहते ,
छोड़ा साथ।
बिना गुलाल अब सूखा फाग,
सूना माथ,
घर लगे अब भूत का डेरा,
झेलें क्वाथ ।
पत्तों की खड़खड़ भी करती,
है भयभीत ,
पीर जलाये आज विरह फिर,
बनती रीत ।













Saturday, February 22, 2020

आजकल


मापनी - गालगा गालगा गालगा गालगा
स्त्रगविनि छन्द
समान्त - इयाँ
पदान्त - आजकल
गीतिका
*******

खोलते ही कहाँ खिड़कियां आजकल ,
झाँकती रह गयीं  रश्मियां आजकल ।

प्यार की चाह में मन धरा सूखती ,
नफरतों की गिरे बिजलियाँ आजकल।

बोलते ही रहे हम सदा तौलकर,
प्रेम में फिर बढ़ी दूरियां आजकल ।

खो गये भाव अब शब्द मिलते नहीं
भेजते हैं कहाँ पातियाँ आजकल ।

शाम होने लगी जो सफर की यहाँ ,
अब डराने लगी आंधियाँ आजकल।

दाँव देखो सियासी चले जा रहे
घर जला सेंकते रोटियां आजकल ।
अनिता सुधीर

Friday, February 21, 2020

शिव शंभु

शिव निराकारी है ,और शंकर साकार रूप लिये हुए। साकार भक्ति  हम सभी कर लेते है 
शिव और शिवत्व को पाना साधना है ।
इस को छन्द के माध्यम से

गोपी  छन्द आधारित मुक्तक
विधान- कुल 15 मात्रा, आदि त्रिकल+द्विकल,
अंत गा पर अनिवार्य और तुकांत

विधाता    ब्रह्मा  जी के लिए
रुद्र       शिव

नाम शिव का जपते रहिये ,
भक्ति शिव की करते रहिये,
लोक त्रिय के स्वामी भोले,
शम्भु शिव दुख हरते रहिये ।

शम्भु,शिव में भेद समझिये
शम्भु को साकार  समझिये ।
रूप की पूजा सरल बड़ी
ज्ञान शिव के लिये  समझिये ।

गले में साँपों की माला,
हाथ में डमरू मतवाला ,
जटा से गंगा उतरी  है,
ओढ़ते हैं मृग की छाला।

उमापति शिव अविरामी है
सत्य शिव सुंदर स्वामी हैं
काल के महाकाल बाबा
जगत के अंतरयामी हैं ।

सृष्टि के निर्माता शिव हैं,
विधाता विष्णु रुद्र शिव हैं,
ज्योति का रूप  धारण करे
ज्ञान के वरदाता शिव हैं।

अनिता सुधीर

प्रकृति और पुरुष

*प्रकृति को स्त्री मान कर रचना
**
प्रकृति और पुरुष के आध्यात्मिक मिलन की रात है
शिवरात्रि का पावन पर्व आया लिये बड़ी सौगात है ।

शिव प्रगट हुए रूप धरि अग्नि  शिवलिंग
द्वादश स्थान प्रसिद्ध हुये द्वादश ज्योतिर्लिंग  ।

 न शिव का  अंत है  ,न शिव का आदि
ब्रह्मा विष्णु थाह पा न सके,शिव ऐसे अनादि

सृष्टि के रचयिता ये ,तीन लोक के स्वामी
कालों के महाकाल ये,बाबा औगढ़ अविरामी

जो सत्य , वो शिव  ,जो शिव वो  सुंदर
शिव होना सरल ,शिवत्व पाना कठिन।

पांच तत्व का संतुलन,शिवत्व का आधार
मस्तक पर चाँद विराजे ,गले साँपो का हार ।

संग गौरा पार्वती ,पर  शिव    वीतरागी
दो विरोधी शक्तियों का संतुलन बाबा वैरागी ।

विराजे संग पार्वती कैलाश पर,हाथ में त्रिशूल लिये
दैहिक ,दैविक  भौतिक ताप ,शिव का त्रिशूल हरे ।

त्रिशूल प्रतीक तीन नाड़ियो की साधना का
साध इन्हें ध्येय  प्राणिक ऊर्जा को पाना ।

गरल रस पान कर, सदाशिव नीलकंठ कहलाये
डमरू  बजा कर शिव कल्याणकारी कहलाये  ।

भक्तों के लिए शिव का हर रूप निराला है ,
चिता की राख को अपने तन पर  डाला है

भस्म हुआ जीवन है ,नही बचा भस्म मे  दुर्गुण
पवित्रता का सम्मान कर ,मृतात्मा से स्वयं को जोड़ा

प्रकृति और पुरुष के आध्यात्मिक मिलन की रात है
शिवरात्रि का पावन पर्व आया लिये बड़ी सौगात है ।

स्वरचित
अनिता सुधीर

Thursday, February 20, 2020

दाँव


दोहा गीत
**
लगा दाँव पर अस्मिता ,करते हैं व्यापार।
रंग  हुआ आतंक का  ,नेताओं की रार ।।

निम्न कोटि के हो रहे ,नेताओं के बोल,
मूल्यों को रख ताक पर,देते ये विष घोल ।
नायक जनता के बनें,करिए दूर विकार ।
अपने हित को त्यागिये,रखिए शुद्ध विचार।
याद करें संकल्प ये ,देश प्रेम आधार ।
रंग...

जाति धर्म निज स्वार्थ दे,गद्दारी का घाव ।
देश भक्ति ही धर्म हो ,रखे एकता भाव।
जन जन की वाणी बनो,अमर देश का नाम,
राजनीति को अब मिले ,एक नया आयाम।
भारत के निर्माण में ,बहे एकता  धार ।
रंग ...

युग ये कैसा आ गया ,चरण वंदना धर्म।
झूठे का गुणगान ही ,बनता जीवन मर्म ।
अपने हित को साधिये,सदा देश उपरांत ।
देशप्रेम अनमोल है ,अडिग रहे सिद्धान्त।
सच्चाई की राह पर,रुको नहीं थक हार ।
रंग ...

स्वरचित
अनिता सुधीर 'आख्या'







Wednesday, February 19, 2020

कल्पना



आस लिये मृग तृष्णा की,छूना चाहा नभ सारा,
कल्पना के गाँव में भी ,कब बसा है घर हमारा ।

नीर की जब प्यास लगती,मरीचिका सी छली गयी
आँधियों की धूल उड़कर,नैनों में कुछ चली गयी
धूप जीवन को जलाती ,कब मिला हमको सहारा ,
कल्पना के गाँव में भी ,कब बसा है घर हमारा ।

देख कर ऊँची दुकानें ,आस लगी पकवानों की।
पंडित क्षुधातुर लौटते,देख दशा यजमानों की।
वाणी रुदन कर मौन  है  साथ कब मिलता तुम्हारा ।
कल्पना के गाँव में भी ,कब बसा है घर हमारा ।

एक मुठ्ठी धूप होती ,चाँद खिड़की से झाँकता ।
जय पराजय से विमुख हो ,सुख अरगनी पर टाँगता।
समन्दर हाथ में भरकर ,टांकों आँचल में तारा  ।
कल्पना के गाँव में भी ,कब बसा है घर हमारा ।

©anita_sudhir

Tuesday, February 18, 2020

गीता

गीता
कुण्डलिनी
**
1)
गीता का उपदेश ये, कर्म करो निष्काम।
लोभ मोह अरु क्रोध तज, जपो कृष्ण का नाम।
जपो कृष्ण का नाम ,भरे फिर पनघट रीता ।
रहो सदा समभाव , यही कहती है गीता ।
2)
गीता का हूँ श्लोक मैं,'वाणी'और कुरान ।
संग बाइबिल को लिये,है हिन्द संविधान ।
है हिन्द संविधान,घूँट क्यों विष का पीता ।
कसम दिलाना बाद ,समझ लो पहले गीता ।
3)
कल की चिंता छोड़िये,तन को नश्वर जान ।
अजर अमर आत्मा रहे ,ये गीता का ज्ञान ।
 ये गीता का ज्ञान,लोभ से गागर छलकी ।
छोड़ें माया मोह  ,करें क्यों चिंता कल की ।
4)
पावन गीता ग्रंथ का ,अंतिम क्षण में पाठ ।
करे मोक्ष की कामना,सजे चिता अब काठ ।
सजे चिता अब काठ,यहीं छूटा जग भावन ।
करिये सदा प्रयास ,रहे यह जीवन पावन  ।

Monday, February 17, 2020

मेहंदी

**
बड़ी जद्दोजहद हुआ करती थी
तब हिना का रंग चढ़ाने में,
हरी पत्तियों को बारीक पीसना
लसलसे लेप बना कर
सींक से आड़ी तिरछी रेखाओं को उकेरना ,
फूल,पत्ती ,चाँद सितारे ,बना उसमें अक्स ढूंढना
मेहंदी की भीनी खुश्बू से सराबोर हो जाना ।
सूखने और रचने के बीच के समय में
दादी का प्यार से खाना खिलाना ,
कपड़े में लगने पर माँ की डांट खाते जाना
सब साथ साथ चला करता था।
सहेलियों के चुहलबाजी का विषय
रची मेहंदी के रंग से पति का प्यार बताना।
भूला बिसरा  अब याद आता है ।
तीज त्यौहार की शान है मेहंदी
सौभाग्य का सूचक मेहंदी ,
स्वयं पिसती और कष्ट सह,
दूसरों की झोली खुशियों से भरती मेहंदी।
दुल्हन की डोली सजती,
पिया को लुभाती है मेहंदी
पुरातन काल से रचती आ रही मेहंदी
उल्लास से हाथों में सजती आ रही मेहंदी।
समय बदला ,हिना का रंग बदला!
अब मेहंदी गाढ़ी  ,गहरी रच जाती है
शायद प्राकृतिक रूप खो  चुकी है
इसीलिये दो दिन में बेरौनक हो जाती है।
अब पिसने के बाद रंग नहीं आता
तो प्यार का रंग नहीं बता पाती है ।
इस लगने और  रचने के बीच
कोई बहुत पास होता है
जो हाथ की लकीरों में रचा बसा होता है
और उससे ही होती है  हाथों में  मेहंदी ।

अनिता सुधीर

Sunday, February 16, 2020

रामायण


कुंडलिया
श्री रामायण ग्रंथ में ,अयन कथा प्रभु राम ।
दर्शन ,चिंतन राम का,'सप्त कांड' हरि नाम।
'सप्त कांड'हरि नाम,भक्ति से शीश झुकाया ।
चौबिस हजार श्लोक,गान कर मन हरषाया ।
आत्मसात कर पाठ ,भजे मन श्री नारायण ।
मिले मोक्ष का द्वार,पढ़े जब श्री रामायण ।
©anita_sudhir

विरह वेदना

***
बिंदी माथे पर सजा ,कर सोलह श्रृंगार ।
पिया तुम्हारी राह अब ,अखियां रही निहार ।।

बिस्तर पर की सिलवटें,बोलें पूरी बात ।
साजन हैं परदेश में ,मिला बड़ा आघात ।

पीड़ा मन की क्या कहूँ,रहते सदा उदास।
कैसे दिन अब काटते ,लिये मिलन की आस ।।

तुम बिन सूना जग लगे,भूल गये  दिन रात ।
खान पान की सुधि नहीं,सुख दुख की क्या बात।।

विरह अग्नि में जल रहे ,मिले तनिक ही चैन।
चंचल मन व्याकुल हृदय,हर पल है बैचैन ।।

विरह पीर में तन जले , कीजे कुछ उपचार ।
आओ प्रियतम पास में,तुम जीवन आधार।।

©anita_sudhir

Friday, February 14, 2020

श्रद्धांजलि


पुलवामा की दर्दनाक घटना के एक वर्ष बीतने पर शहीदों को शत शत नमन
**
 घात लगाकर दे गए, आतंकी आघात।
एक वर्ष अब बीतता,ह्रदय व्यथित दिन रात।

वसन तिरंगा ओढ़ के , चले देश के लाल,
आँखे नम हैं देश की,व्यथित मातु अरु तात ।

आयी थी विपदा बड़ी,हमको कम मत आँक,
बदला रिपु से ले लिया,उसकी क्या औकात ।

व्यर्थ न होगा साथियों,ये अनमिट बलिदान,
वादा करते हम सदा  ,अरि को देंगे मात ।

कोटि कोटि उनको नमन ,जिनके तुम हो लाल ,
अर्पित श्रद्धा सुमन ये ,नहीं सहेंगें घात ।

********
अनिता सुधीर
लखनऊ



प्रेम


मापनी- 2122 2122 212
पदांत- है समांत- आह
***
प्रेम का छाया नया उत्साह है।
नित नये दिन से मना सप्ताह है।

बोल मुख से प्रेम के निकले नहीं
आपको मेरी कहाँ परवाह है।

वासना को प्यार कहते लोग अब,
प्रेम का होता कहाँ निर्वाह  है ।

प्रेम निश्चित दिन यहाँ मनने लगे,
प्रेमियों को मिल रही अब राह है ।

रंग की निखरी खुमारी देखिये ,
फाग का आया नया यह माह है।

याद पुलवामा रही दिल में अभी,
बीतते पल से निकलती आह है।

अनिता सुधीर

Thursday, February 13, 2020

संदेह


 /शक
*****
सभी संभव
संभावनाओं के मध्य
एक छोटा शब्द !
संदेह , शक ,
और उससे उत्पन्न अंजाम!
प्रश्नचिन्ह बनाए
पल पल हंसाता
पल पल डराता
नजर आता है ।
मकड़जाल में जकड़कर
जीवन के हसीन पलों को
अपनी गिरफ्त में लिए
ये शब्द अपना अस्तित्व
बचा जाता है ।
क्या होगा इसका अंजाम ,
परिणाम के पहले संदेह!
भविष्य के गर्भ में क्या छुपा
ये सतत मानसिक संतुलन
बिगाड़ अपनी जीत का
जश्न मनाता है ।
अंजाम की मत करो फिकर
संदेह की नहीं अगर मगर
जो निर्णय लो ,अडिग हो
उसे सत्य ,सही सिद्ध करो
कर्तव्यनिष्ठा ईमानदारी से
सजग हो  कर्म करो
केवल कर्म करो ।
एक बात तो तय है
जो भी होगा अंजाम
ये  कुछ दे जाएगा
सफल हुए तो लगन
अंजाम गर गलत हुआ
तो जीवन का पाठ सिखा जाएगा,
अंजाम कुछ दे कर ही जायेगा
संदेह से सब बिखर जाएगा ।


अनिता सुधीर

Wednesday, February 12, 2020

नारी


नारी का अपमान कर,करते क्यों उपभोग।
विज्ञापन में छाप के ,कैसा करा प्रयोग ।
कैसा करा प्रयोग ,समझते भोग्या उसको।
हुआ पतन जो आज,कहाँ चिंता अब किसको।
सकल सृजन की सार ,वस्तु बनती बेचारी ।
रही धुरी परिवार,प्रेम की मूरत नारी ।

Tuesday, February 11, 2020

रुझान

पंक मध्य अब कमल नहिं,साफ हुआ अब हाथ
मुफ्त नीर विद्युत चला ,लेकर सबको साथ ।

Monday, February 10, 2020

मुफ्त



हारा जीता 'मुफ्त' में ,बना तमाशा खेल।
परिपाटी मतदान की,'बिरयानी' सँग मेल।
बिरयानी का मेल,'बाग'के होते चर्चे ।
नेताओं की जीत ,कराती कितने खर्चे ।
अपशब्दों का दौर ,किसी को 'डंडा"मारा।
हुआ 'मुफ्त'का लोभ ,तंत्र हरदम ही हारा।

अनिता सुधीर

Sunday, February 9, 2020

खोता बचपन

***
दादी बाबा संग नहीं
भाई बहन का चलन नहीं
नाना नानी दूर हैं
और बच्चे...
एकाकी बचपन को मजबूर हैं ।
भौतिक सुविधाओं की होड़ लगी
आगे बढ़ने  की दौड़ है
अधिकार क्षेत्र बदल रहे
कोई  कम क्यों रहे
मम्मी पापा कमाते हैं
क्रेच छोड़ने जाते हैं
शाम को थक कर आते हैं
संग समस्या लाते हैं
बच्चों  खातिर समय नहीं
मोबाइल , गेम थमाते है
बच्चों के लिये कमाते हैं
और बच्चे ...
बचपन खोते जाते हैं ।
आबोहवा अब शुद्ध नहीं
सड़कों पर भीड़ बड़ी
मैदान  खेल के लुप्त हुए
बस्ते का बोझ बढ़ता गया
कैद हो गये चारदीवारी में
न दोस्तों का संग  मिला
बच्चों का ....
बचपन खोता जाता है
बच्चा समय से पहले  ही
बड़ा होता जाता है।
याद करें
अपने बचपन के दिन
दादी के  वो लाड़ के दिन
भाई बहनों संग मस्ती के दिन
दोस्तों संग वो खेल खिलौने के दिन
क्या ऐसा बचपन अब बच्चे पाते हैं
बच्चे ....
अपना बचपन खोते जाते हैं
आओ हम बच्चों का बचपन लौटाएं
स्वयं उनके संग बच्चे बन  जायें
वो बेफिक्री के दिन लौटा दें
बच्चों का बचपन लौटा दें।
©anita_sudhir

Thursday, February 6, 2020

गगन के पार

नवगीत


कल्पना उड़ती हुई ये
पूछती हर बार,
क्या चलोगे साथ मेरे
तुम गगन के पार ।

कितने सावन बीत गये
कभी बुझी न प्यास,
मन धरा बंजर तरसता
बूँद की थी आस ,
व्यथित हृदय चातक बन के
रहा फलक निहार
क्या चलोगे साथ मेरे  ,
तुम गगन के पार ।

अश्व पर हों साथ हम जो
लगती तेरे अँग,
आओ भर लें जीवन में
इंद्रधनुष के रँग ।
छोर पकड़े धूप के हम
रथ पर हो सवार ।
क्या चलोगे साथ मेरे  ,
तुम गगन के पार ।

बनी हैं सहगामिनी जो
बारिश की बूंदे,
कल्पनाओं में विचरते
मन  दादुर कूदे
चाँद का टीका पहन लें,
हों सितारे हार
क्या चलोगे साथ मेरे  ,
तुम गगन के पार ।

अनिता सुधीर










Monday, February 3, 2020

अहिंसा

**
सत्य अहिंसा बात पुरानी,रार मचाना आता है ।
दूजे घर में आग लगा के,दाल पकाना आता है ।।

देख! द्रवित होते अब गांधी,ग़द्दारों से देश भरा ,
शिक्षा के मंदिर में देखो,हथियारों से नाता है ।।

अपशब्दों का दौर बढ़ा है ,वादों की अब झड़ी लगी,
विश्वास नहीं नेताओं पर,इंसान ठगा जाता है ।

रामराज्य का सपना देखा, हिंसा बढ़ती जाती है,
अपनी ढपली राग बजाते ,भारत कहाँ सुहाता है।।

सीमाओं पर जो डटे रहे,याद करो बलिदानों  को
इन छोटी बातों पर तुमको, गाल बजाना भाता है ।

समृद्ध संस्कृति भारत की है ,इसका मान बढ़ाएं हम ,
सत्य अहिंसा का व्रत लेकर,वचन निभाना आता है ।


©anita_sudhir

Saturday, February 1, 2020

दोहावली

मधुर रागिनी छेड़ के ,धरा करे श्रृंगार ।
ऋतु वसंत मधुमास है ,बहती मुग्ध बयार ।।

महक पुष्प की फैलती ,होता ज्यों गुणगान ।
विसरित सौरभ मनुज की ,करिये कर्म महान ।।

सात सुरों को साध के ,गायें सरगम गीत ।
त्याग और विश्वास से,निभे जगत में प्रीत ।

किंशुक लाली फैलती ,खिलता वृक्ष पलाश।
सूरज की ज्यों लालिमा,फैली अब आकाश ।।

लगे झूलने बौर अब ,कोयल झूमे डाल ।
पुष्पों से मकरंद पी,मस्त भ्रमर की चाल ।।

युग ये कैसा आ गया ,चरण वंदना धर्म।
झूठे का गुणगान ही,चारण का अब कर्म।।

अंतस के शृंगार से, जीवन का उल्लास।
फैले किंशुक लालिमा,प्रतिदिन हो मधुमास ।।

©anita_sudhir