बुद्धि बनी गांधारी
विज्ञापन जब चौखट लांघे
बुद्धि बनी गांधारी
सजा धजा कर झूठ परोसा
चमचम रहती थाली
व्यंजन फीके निकले सारे
नमक मिर्च दें गाली
बाजार बजाता जब डमरू
चिल्लर बने जुआरी।।
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पतलून बेचती नारी जब
बिक्री दौड़ लगाती
उजली रहें कमीजें किसकी
साबुन बहस छिड़ाती
त्योहारों की धमाचौकड़ी
किश्तें करें उधारी।।
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शब्द लुभावन पासा फेंके
मकड़जाल में मानव
मस्तिष्क शिरा फड़फड़ करती
इच्छा बनती दानव
बंदर जैसे मानव नाचे
साधन बने मदारी।।
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अनिता सुधीर आख्या
जी सादर धन्यवाद
ReplyDeleteअप्रतिम रचना।
ReplyDeleteजी धन्यवाद
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 5 अक्टूबर 2020) को 'हवा बहे तो महक साथ चले' (चर्चा अंक - 3845) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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#रवीन्द्र_सिंह_यादव
रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteवाह!सुंदर सृजन ।
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteसच्चाई की सही तस्वीर
ReplyDeleteयथार्थ कहा आपने
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुन्दर और सारगर्भित
ReplyDeleteयथार्थ प्रस्तुत करती सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteशब्द लुभावन पासा फेंके
ReplyDeleteमकड़जाल में मानव
मस्तिष्क शिरा फड़फड़ करती
इच्छा बनती दानव
बंदर जैसे मानव नाचे
साधन बने मदारी।।
अद्धभुत भावाभिव्यक्ति
जी हार्दिक आभार
Deleteवाह सखी बहुत सुंदर ! सुंदर व्यंजनाएं लिए सुंदर नवगीत।
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