मंथरा अवसाद में अब
है जगत पर मार उसकी
नित कथा लिखती कुटिलता
तथ्य बदले अब समय में
रानियाँ है केश खोले
कोप घर अब हर निलय में
फिर किले भी ध्वस्त होते
जीतती है रार उसकी ।।
मंथरा अवसाद..
प्राण बिकता कौड़ियों में
बुद्धि पर ताला लगा है
सोच कुबड़ी कुंद होती
स्वार्थ को कहती सगा है
लिख नया इतिहास पाती
वेदना हो पार उसकी।
मंथरा अवसाद ...
सत्य पूछे वन गमन क्यों
मंथरा कब तक रहेगी
शक्तियाँ हैं आसुरी अब
सीख भी कब सीख लेगी
व्यंजना भी रो रही है
देख आँसू धार उसकी।।
मंथरा अवसाद ...
अनिता सुधीर आख्या
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 29 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteजी हार्दिक आभार
Delete