Wednesday, May 12, 2021

गरमी


*गरमी*
कुंडलिया

गरमी के इस ताप में ,पारा हुआ पचास ।
सूरज उगले आग जो,बरखा की है आस।।
बरखा की है आस,जीव सब जल को तरसें।
सूख गए अब ताल,झूम कर मेघा बरसें।।
रोपें फसल खरीफ,दिखा अब थोड़ी नरमी।
भरें खेत खलिहान,बाद इस मौसम गरमी।।

2)

गरमी सबकी अब अलग,बढ़ा रही संताप ।
लोभ क्रोध के ताप में,बढ़ा धरा पर पाप।।
बढ़ा धरा पर पाप,सुलग कर जीवन रहता।
होता अत्याचार, मनुज तन पीड़ा सहता।।
आख्या की सुन पीर,पाप जब करें अधर्मी।
करिये सभी प्रयास, उतारें इनकी गरमी ।।

अनिता सुधीर आख्या

8 comments:

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    1. जी आ0 हार्दिक आभार

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  2. एक ताप पर दूसरा उत्ताप !

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    1. जी आ0 हार्दिक आभार

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  3. Replies
    1. जी आ0 हार्दिक आभार

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  4. वाह ... मौसम अनुरूप है कुण्डली ....
    बहुत खूब ...

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    1. जी आ0 हार्दिक आभार

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