*गरमी*
कुंडलिया
गरमी के इस ताप में ,पारा हुआ पचास ।
सूरज उगले आग जो,बरखा की है आस।।
बरखा की है आस,जीव सब जल को तरसें।
सूख गए अब ताल,झूम कर मेघा बरसें।।
रोपें फसल खरीफ,दिखा अब थोड़ी नरमी।
भरें खेत खलिहान,बाद इस मौसम गरमी।।
2)
गरमी सबकी अब अलग,बढ़ा रही संताप ।
लोभ क्रोध के ताप में,बढ़ा धरा पर पाप।।
बढ़ा धरा पर पाप,सुलग कर जीवन रहता।
होता अत्याचार, मनुज तन पीड़ा सहता।।
आख्या की सुन पीर,पाप जब करें अधर्मी।
करिये सभी प्रयास, उतारें इनकी गरमी ।।
अनिता सुधीर आख्या
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteएक ताप पर दूसरा उत्ताप !
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुंदर कुंडलियां
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteवाह ... मौसम अनुरूप है कुण्डली ....
ReplyDeleteबहुत खूब ...
जी आ0 हार्दिक आभार
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