*क्यूँ लिखूँ*
क्यूँ लिखूँ, मैं क्यूँ लिखूँ
यक्ष प्रश्न सामने खड़ा
इसका जवाब
चेतना अवचेतना में गड़ा
मैं मूढ़ अल्पज्ञानी खोज रही जवाब
और मस्तिष्क कुंद हुआ पड़ा
प्रश्न ओढ़े रहा नकाब
अब तक न मिला जवाब!
प्रश्न से ही प्रश्न?
अगर न लिखूँ ........
क्या बदल जायेगा!
अनवरत वैसे ही चलेगा
जैसे औरों के न लिखने से .....
मैं सूक्ष्म कण मानिंद
अनंत भीड़ में लुप्त
संवेदनाएं,वेग आवेग उद्वेलित करती
घुटन उदासी की धुंध
विचार गर्भ में ही मृतप्रायः
और मैं सूक्ष्म से शून्य की यात्रा पर..
यह जवाब ही समाहित किये
क्यूँ लिखूँ मैं
सूक्ष्म से विस्तार की
यात्रा के लिए ...
उन पर बढ़ते नन्हें कदम
के लिए लिखूँ.…
अनिता सुधीर आख्या
बहुत बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29 -5-21) को "वो सुबह कभी तो आएगी..."(4080) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार
Deleteअच्छी और गहन कविता।
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteकिंकर्तव्यविमूढ़ से मन की सटीक अभिव्यक्ति सखी बहुत सुंदर गहन भाव।
ReplyDeleteसुंदर सृजन।
एक विचार अनेक विचारों का जन्मदाता होता है जैसे एक बीज हजार वृक्षों का, भीतर जब ऊर्जा बहने को आतुर होती है तो कलम स्वयं ही लिखवा लेती है चेतन ब्रह्म बदल जाता है तब शब्द ब्रह्म में !
ReplyDeleteआप की स्नेहिल प्रतिक्रिया केलिऐ हार्दिक आभार
Deleteविचारो को अमली जामा पहना गई आपकी लेखनी,सादर शुभकामनाएं।
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
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