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तृप्ति क्षुधा धन से कब हो,धनवान करोड़ डकार रहे।
लोभ बढ़ाकर पाप करें, कितना वह पैर पसार रहे।।
जीवन में अँधियार भरे, कुल का नित मान उतार रहे।
भूल गए असली धन को, कब सत्य प्रताप विचार रहे?
अनिता सुधीर आख्या
सहकर सबके पाप को,पृथ्वी आज उदास। देती वह चेतावनी,पारा चढ़े पचास।। अपने हित को साधते,वक्ष धरा का चीर। पले बढ़े जिस गोद में,उसको देते पीर।। दू...
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