मातु पिता के प्रेम में,मिलती शीतल छाँव।
पीढ़ी अब ये भूलती,ढूँढ़े दूजा ठाँव।।
दंश उपेक्षा का लिए,मातु पिता मजबूर।
कष्ट उठा पाला जिसे,वही करे अब दूर।।
मातु पिता को बाँट कर,किया मान नीलाम।
समय चक्र ऐसा चला,छूटी प्रेम लगाम ।।
संतानें क्यों भूलतीं, मातु पिता का प्यार।
बोझ समझ माँ बाप को,करते दुर्व्यवहार।।
प्रथम पाठशाला रही,घर का शिष्टाचार।
पाओगे जो बो रहे,करो नेक व्यवहार।।
मातु पिता को कष्ट दे,कौन सुखी इंसान।
कर्मों का फल भोगते,जीवन नरक समान।।
पूजा है उत्तम यही ,मातु पिता का मान।
सेवा का व्रत लीजिये ,तभी मिलें भगवान।।
मातु पिता की झुर्रियां,जीवन का संघर्ष।
इन सिकुड़न के मोल में,संतति का उत्कर्ष।।
मंदिर में श्रृंगार कर,लगा प्रभो को भोग।
मातु पिता भूखे रहे,क्या ये उत्तम योग ।।
जीवन में चुकता करें,मातु पिता का कर्ज।
आदर्शों का अनुसरण,रहे हमारा फर्ज।।
मातु पिता का ध्यान रख,रखिये सेवा भाव।
लोक सभी तब तृप्त हों,पार जगत की नाव।।
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteकरवाचौथ की बधाई हो।
जी आ0 हार्दिक आभार
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.11.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
जी हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteबहुत सार्थक दोहे सखी एक दर्द उकेरता सुंदर सृजन।
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