नवगीत
छिना घरौंदा! ममता तड़पी
आंतों में जब अग्नि जली
फसल खड़ी इतराती थी जब
आतंकी बरसात हुई
खलिहानों की भूख बढ़ी थी
और मनुज की मात हुई
कुपित मेघ ने आशा तोड़ी
निर्मम जब चहुं और चली।।
मटका चूल्हा सीली लकड़ी
सिसकी गाती फिर लोरी
बहा बिछौना जल प्लावन में
सेज बनाए क्या गोरी
नित्य मड़ैया टपक रही जब
जाए वो अब कौन गली।।
है विकास का दावा झूठा
नित पानी में तैर रहा
क्लांत नीति फिर व्यथित पूछती
क्यों उपाय से बैर रहा
खेल नियति के जब घन खेले
किस्मत रेखा कहाँ टली।।
अनिता सुधीर आख्या
No comments:
Post a Comment