रस्में
*देहरी गाने लगी है*
ब्याह की रस्में निभाकर
देहरी गाने लगी है ।।
मेहँदी रचती हथेली
भाग्य की गाढ़ी लकीरें
ऊँगलियाँ साजें अँगूठी
रीति के बजते मँजीरे
जब शगुन हल्दी लगाती
नीति दूर्वा ने सिखाई
प्रेम का हो रंग पक्का
जब अहम करता ढिठाई
भूमिजा का आचरण हो
बात यह भाने लगी है।।
आरती का थाल हँसता
सालियों के हाथ में अब
सात फेरों की सुनो
जन्म सातों साथ में अब
शुभ विदाई भी सिसकती
तात बिन जीवन अधूरा
अंजुरी की खील कहती
धान्य का भंडार पूरा
माँग सिंदूरी सजी जब
मान वो पाने लगी है ।।
छाप कुमकुम कह रही है
दो चरण लक्ष्मी पड़े हैं
द्वार के झूमे कलश भी
शुभ पिटारी ले खड़े हैं
गाँठ पल्लू की खुली जो
नेग ननदी माँगती है
है मिलन की दिव्यता जो
ध्रुव अडिग सा चाहती है
उर पटल पर सेज की वो
फिर महक छाने लगी है।।
अनिता सुधीर आख्या
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 27 नवंबर नवंबर नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteब्याह की रस्में निभाकर
ReplyDeleteदेहरी गाने लगी है ...
कोमल भावों से परिपूर्ण बहुत सुंदर रचना !!!
हार्दिक बधाई!!!
सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteबहुत बहुत सुन्दर रचना |शुभ कामनाएं |
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
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