*खेत को क्यों मिर्च लागे*
हो अचंभित देखता जग
खेत को क्यों मिर्च लागे
रोटियां सब सेंकते जब
वो तवा हरदम बने हैं
मोहरें शतरंज चलतीं
दाँव प्यादे पर ठने हैं
कुर्सियां मिल कर लड़ी हैं
कर कृषक को आज आगे।।
खेत को क्यों
मंडियों की भीड़ कहती
दिग्भ्रमित हो क्यों खड़े हो
अन्न के दाता तुम्हीं हो
भूख से तुम ही लड़े हो
टूटते आए सदा ही
देख कच्चे मौन धागे।।
खेत को क्यों
खुरदुरी सी एड़ियाँ अब
घाव कितने सह रही हैं
पृष्ठ चिपका जब उदर से
उग्र हो कैसे सही हैं
पाट में घुन पिस रहे हैं
वेदना भुगतें अभागे।।
खेत को क्यों
अनिता सुधीर आख्या
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (02-12-2020) को "रवींद्र सिंह यादव जी को बिटिया के शुभ विवाह की हार्दिक बधाई" (चर्चा अंक-3903) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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जी आ0 हार्दिक आभार
Deleteसटीक।
ReplyDeleteखुरदुरी सी एड़ियाँ अब
ReplyDeleteघाव कितने सह रही हैं
पृष्ठ चिपका जब उदर से
उग्र हो कैसे सही हैं
पाट में घुन पिस रहे हैं
वेदना भुगतें अभागे।।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, अनिता दी।
हार्दिक आभार सखी
Deleteजी हार्दिक आभार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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