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भूल मानव की सदा से इस धरा ने जब सही है।
आँसुओं की बाढ़ आती वेदना फिर अनकही है।।
कोख उजड़ी माँग उजड़ी प्रीत के सब रंग उजड़े
कब मनुजता सीख लेगी पीर सदियों की यही है।।
नित बसंती बौर पर पतझड़ ठहरता सा गया क्यों
दर्द का फिर कथ्य लिखकर लेखनी विचलित रही है।।
लोभ मद के फेर में पड़ सुख भटकता जा रहा अब
प्राप्ति की इस लालसा में सत्य की मंजिल ढ़ही है।।
मृत्यु की आहट सुनाकर जब प्रलय भी काँप जाए
फिर विधाता सोचता ये काल की कैसी बही है।।
बही बहीखाता
अनिता सुधीर आख्या
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteबेहतरीन गीतिका।
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteउम्दा रचना
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteसुंदर।
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteक्या बात है ! बहुत सुंदर
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteजी आ0 रचना को स्थान देने के लिये हार्दिक आभार
ReplyDeleteजी आ0 रचना को स्थान देने के लिये हार्दिक आभार
ReplyDeleteकोख उजड़ी माँग उजड़ी प्रीत के सब रंग उजड़े
ReplyDeleteकब मनुजता सीख लेगी पीर सदियों की यही है।।
बहुत ही सुंदर रचना ,सादर नमन आपको
हार्दिक आभार आ0
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