मैं धरा मेरे गगन तुम
अब क्षितिज हो उर निलय में
प्रेम आलिंगन मनोरम
लालिमा भी लाज करती
पूर्णता भी हो अधूरी
फिर मिलन आतुर सँवरती
प्रीत की रचती हथेली
गूँज शहनाई हृदय में।।
मैं धरा..
धार बन चलती चली मैं
गागरें तुमने भरी है
वेग नदिया का सँभाले
धीर सागर ने धरी है
नीर को संगम तरसता
प्यास रहती बूँद पय में।।
मैं धरा..
नभ धरा फिर मान रखते
तब क्षितिज की जीत होती
रंग भरती चाँदनी जो
बादलों से प्रीत होती
भास क्यों आभास का हो
काल मृदु नित पर्युदय में।।
©anita_sudhir
धार बन चलती चली मैं
ReplyDeleteगागरें तुमने भरी है
वेग नदिया का सँभाले
धीर सागर ने धरी है
नीर को संगम तरसता
प्यास रहती बूँद पय में।।
मैं धरा..
जी शुक्रिया
Deleteजी आ0 हार्दिक आभार
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 22 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteरंग भरती चाँदनी जो
ReplyDeleteबादलों से प्रीत होती
भास क्यों आभास का हो
–बेहद खूबसूरत चित्रण
मनमोहक सृजन .
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteबेहद सुंदर और मनभावन सृजन अनीता जी
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteबहुत ही सुंदर रचना
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteआदरणीया अनिता सुधीर जी, नमस्ते👏! लाजवाब सृजन! निस्तब्ध हूँ! शब्द कम पड़ रहे हैं। कुछ पंक्तियाँ:
ReplyDeleteधार बन चलती चली मैं
गागरें तुमने भरी है
वेग नदिया का सँभाले
धीर सागर ने धरी है
नीर को संगम तरसता
प्यास रहती बूँद पय में।। --ब्रजेन्द्रनाथ
जी आ0 हार्दिक आभार
Deleteमनोरम रचना।
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteबहुत ही मधुर सुगठित रचना है |
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Delete