चंचल मन को गूँथना
सबसे टेढ़ी खीर
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घोड़े सरपट भागते
लेकर मन का चैन
आवाजाही त्रस्त हो
सुखद चाहती रैन
उछल कूद कर कोठरी
बनती तभी प्रवीर।।
चंचल मन..
भाड़े का टट्टू समझ
कसते नहीं लगाम
इच्छा चाबुक मार के
करती काम तमाम
पुष्पित हो फिर इन्द्रियाँ
चाहें बड़ी लकीर।।
चंचल मन..
भरी कढ़ाही ओटती
तब जिह्वा का स्वाद
मंद आँच का तप करे
आहद अनहद नाद
लोक सभी तब तृप्त हो
सूत न खोए धीर।।
चंचल मन..
अनिता सुधीर आख्या
Bahut Sundar ma'am 👌👌👌
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुन्दर पुच्छल दोहे।
ReplyDeleteजी आ0 हार्दिक आभार
Deleteबेहद खूबसूरत
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteजी सादर अभिवादन
Deleteरचना को स्थान देने के लिये हार्दिक आभार आ0
ReplyDeleteसुंदर व्यंजना वाला सुंदर नवगीत सखी।
ReplyDeleteधन्यवाद सखी
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