**
जिंदगी की मुश्किलों से मशविरा ले जाऊँगा।
इस गुलिस्तां के अदब को मैं निभा ले जाऊँगा।।
क्यों मुहब्बत की हवा भी अब बगावत कर रही
नफ़रतों की आँधियों को मैं बहा ले जाऊँगा।।
अब तलक मज़मून ख़त का याद हमने है रखा
कह रहा था आपको इस मर्तबा ले जाऊँगा।।
दौड़ में है वक़्त ज़ाया,सैर जो अब साथ में हो
इस शहर की शाम ये बाद-ए-सबा ले जाऊँगा l
बन रही अब है नजाकत खुद ही देखो इक गजल
आपके इस इत्र का फिर काफिया ले जाऊँगा।।
अनिता सुधीर आख्या
जिंदगी की मुश्किलों से मशविरा ले जाऊँगा।
ReplyDeleteइस गुलिस्तां के अदब को मैं निभा ले जाऊँगा
बहुत बहुत सुन्दर गजल
क्यों मुहब्बत की हवा भी अब बगावत कर रही
ReplyDeleteनफ़रतों की आँधियों को मैं बहा ले जाऊँगा।।
.....बहुत ही प्रभावशाली पंक्तियाँ। सुन्दर व सराहनीय गजल।।।।।
जी हार्दिक आभार
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (31-01-2021) को "कंकड़ देते कष्ट" (चर्चा अंक- 3963) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
अब तलक मज़मून ख़त का याद हमने है रखा
ReplyDeleteकह रहा था आपको इस मर्तबा ले जाऊँगा।।
लाजवाब ग़ज़ल |बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें आपको
सादर धन्यवाद
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना सखी
ReplyDeleteआभार सखी
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteजी धन्यवाद
Deleteजी धन्यवाद
ReplyDeleteलाजवाब और भावपूर्ण सृजन ।
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Delete