नवगीत
जीत के कुछ मंत्र बो दें
अब लगी है धूप तपने
सौ परत में स्वप्न दुबका
सो रहा तकिया लगाकर
भोर सिरहाने खड़ी है
पैर को चादर उढ़ाकर
पथ विजय के नित पुकारें
धार हिय उत्साह अपने।।
कंठ सूखे होंठ पपड़े
ले नियति जब भागती है
पर्ण लेती सिसकियाँ जो
रात्रि भी फिर जागती है
अब पुरानी रीति बैठी
जीत के नव श्लोक जपने।।
रात ने माँगी मनौती
द्वार पर जो भोर उतरी
स्वेद श्रम से अब भिगोकर
कर्म की फिर बाँध सुतरी
रथ समय का चल पड़ेगा
ले कुँआरे साथ सपने।।
अनिता सुधीर
बहुत खूब बधाइयाँ
ReplyDeleteभोर सिरहाने खड़ी है, पैर को चादर उढ़ाकर...अद्भुत🙏🙏
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर
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ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१६-०४ -२०२२ ) को
'सागर के ज्वार में उठता है प्यार '(चर्चा अंक-४४०२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अत्यंत उत्कृष्ट एवं प्रेरणादायक सृजन 💐💐💐💐🙏🏼
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