हाथ लेकर ख़ाली इस सफ़र पे आए।
साथ फिर क़फ़न के क्या ले के कोई जाए।।
अपनी ही चाहतों को दिल में दफन किया था
तूफ़ान जो उठा फिर कहर वो खूब ढाए।।
जिंदगी भी आज़िज़ कब तलक शिकवा करे
हाथ की लकीरों को कब कौन है मिटाए।।
तक़दीर खेल खेले अब पैर थक रहे हैं
वक़्त थोड़ा सा बचा चल कर शज़र लगाएं।
दिल में पड़ी दरारें जब धर्म की सियासत
आग बस्तियों की फिर कौन आ बुझाए।।
अनिता सुधीर
सुन्दर रचना
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