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श्वास कंठ में कबसे अटकी
तृषा नहीं गंगाजल की
तप्त हृदय अब कबसे प्यासा
धीरज की गगरी छलकी।।
वक्ष पटल पर पड़ी लकीरें
चोट तुम्हीं ने पहुँचाई
नाखूनों से नोचा तुमने
पीड़ा से मैं अकुलाई
कमी अन्न की खलिहानों में
चित्र सोचती अब कल की ।।
तप्त हृदय अब कबसे प्यासा
धीरज की गगरी छलकी।।
चेतन मन उर्वी ढूँढ़ रही
हरित वल्लरी आलिंगन
व्यथा भोगती जड़ होने की
चाहूँ साँसों का स्पंदन
उर पाथर पर पड़ी दरारें
बहे धार शीतल जल की।।
तप्त हृदय अब कबसे प्यासा
धीरज की गगरी छलकी।।
चली उर्वशी देवलोक से
क्रीड़ा सुख को तरस रही
दैवत्व पुरुरवा की तृष्णा
अब तक कितने कष्ट सही
बंद नैन में स्वप्न डोलते
आस लगी स्वर्णिम पल की ।।
तप्त हृदय अब कबसे प्यासा
धीरज की गगरी छलकी।।
अनिता सुधीर आख्या
अत्यंत भावपूर्ण, हृदयस्पर्शी, मार्मिक गीत मैम, नमन🙏
ReplyDeleteधन्यवाद गुंजित
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ अप्रैल २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक आभार आ0
Deleteअत्यंत संवेदनशील मर्मस्पर्शी गीत सृजन 💐💐💐🙏🏼
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteसच्चाई बयां करती हुई रचना। बेहद खूबसूरत गीत 👏👏
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteअति सुंदर।
ReplyDeleteधरती की पुकार नहीं सुनी तो धरती अच्छे से सुनाना भी जानती है ।
ReplyDeleteगहन रचना ।
हार्दिक आभार आ0
Deleteरचना बढिया है अनीता जी,पर कुछ शब्द शायद सही नहीं लिखे गये।एक बार रचना का फिर से अवलोकन अवश्य करें सस्नेह बधाई और शुभकामनाएं ❤🌺
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteकृप्या मार्गदर्शन करें
अनीता जी,एक आध शब्द गलत नज़र आ रहा था।पर अब लगता है ब्लॉगर के कई ब्लोग्स पर इस तरह की त्रुटि नज़र आ रही है।जैसे पहले आपके ब्लॉग पर खलिफानोँ दिख रहा था,अब खलिहानों नज़र आ रहा,जो कि शायद सही हैपहले धीरज की जगह धिरे दिख रहाथा,अब धीरज सही दिख रहा है।।सस्नेह ❤
Deleteजी आभार
Deleteसार्थक गीत। उत्तम संदेश
ReplyDelete👌👌
Deleteबहुत अच्छी सामयिक चिंतन प्रस्तुति
ReplyDeleteपृथ्वी दिवस पर पृथ्वी की सार्थकता सिद्ध करती सुंदर रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर यूपी
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