दोहा छन्द
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सदियों से जकड़ी रही,पैरों में जंजीर।
भारत माँ के लाल तब, कैसे सहते पीर।।
वीरों के बलिदान से,आजादी का पर्व।
नमन शहीदों को करें,हमको उन पर गर्व।।
मुक्त फिरंगी से हुए,पंद्रह था दिन खास।
टूटी माँ की बेड़ियाँ,था अगस्त शुभ मास।।
बलिदानी गाथा रही,समझें इसका मर्म।
व्यर्थ न जाए ये कहीं,देश प्रेम हो धर्म।।
बँटवारे की वेदना,भरे हृदय में पीर।
घाव हरें हैं आज भी,लिए नयन में नीर।।
राज करो सब बाँट के, कुटिल रही थी नीति।
दंश झेलते ही रहे,खत्म करो यह रीति।।
लाल किला प्राचीर भी,देख रहा इतिहास।
गौरव गाथा देश की,भरे हृदय उल्लास।।
वर्ष तिहत्तर हो रहे,स्वतंत्रता अनमोल।
शान तिरंगा गा रहा,कानों में रस घोल।।
आजादी के पर्व का,गहन रहा है अर्थ।
अपनों के ही दास बन,करिये नहीं अनर्थ।।
श्रेष्ठ नागरिक धर्म से,रखें देश का मान।
सार्थकता इसमें निहित,भारत का उत्थान।।
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