Tuesday, August 18, 2020

 तृषा बुझा दो मरुथल की*


रिक्त कुम्भ है जग पनघट पर

फिर आस लगी है श्यामल की


काया निस दिन गणित लगाती

जोड़ घटाने में है उलझी 

गुणा भाग से बूझ पहेली

कब हृदय पटल पर है सुलझी 

थी मरीचिका मृगतृष्णा की 

अब तृषा बुझा दो मरुथल की।।

रिक्त कुम्भ....


थकी पथिक हूँ पड़ी राह में 

बीत गयीं हैं कितनी सदियां

नहीं माँगती ताल तलैया

नहीं चाहती शीतल नदियां

एक बूँद से तृप्त हुई जो

अखिल तृप्ति संजीवन बल की।।


अस्तित्व मिटा पाथर सी हूँ

जीवन स्पन्दन निष्प्राण हुआ

मिले तुम्हारा हस्ताक्षर जब

स्पर्श तरंगों से त्राण हुआ 

शापमुक्त फिर हुई अहिल्या

ठोकर खाकर चरण कमल की।।

रिक्त कुम्भ....


अनिता सुधीर आख्या




14 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 18 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-08-2020) को    "हिन्दी में भावहीन अंग्रेजी शब्द"  (चर्चा अंक-3798)     पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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  3. जी हार्दिक आभार

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  4. बहुत सुंदर नवगीत सृजन सखी ।
    शानदार व्यंजनाएं गीत को नवगीत की ऊंचाईयों पर स्थापित कर रहा है ।
    अभिनव सृजन।

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  5. बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता । हार्दिक आभार ।

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