बजे निगोड़ी यह साँकल कब
आस टँगी ही रहती द्वारे
सपनें बोती रही प्रतीक्षा
कब फलते देखे वृक्ष सभी
आँसू घर की चौखट धोए
आँखें पाथर सी बनीं तभी
सुधियाँ आकर करें हिलोरें
याद दिलातीं वादे सारे।।
बजे निगोड़ी..
कहे व्यथा रंगोली रोकर
शृंगार अधूरा अब होता
व्यथित हृदय कब गीत रचाता
टुकड़ों में शब्दों को बोता
अकुलाहट जब शोर मचाता
नयन देखते दिन में तारे।।
बजे निगोड़ी..
पगचापों की आहट रूठी
ढूँढ़े पाँवो की परछाई
हाथ पसीजे लिये रिक्तता
चौड़ी होती जाती खाई
पल पल बीते सदियों जैसे
कुटी मौन हो राह निहारे।।
बजे निगोड़ी..
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