छंद की ग्रीवा हठी-सी
माँगती अक्षर जड़ाऊ।
हाट कहता यह व्यथा फिर
काव्य क्यों रहता बिकाऊ।।
कल्पना की आस भागी
शब्द को कसकर जकड़ लें
बुद्धि ने पहरा लगाया
बाँध कर गति को पकड़ लें
आर्द्रता मसि पर पसरती
भाव कब रहते टिकाऊ।।
जब कलम अनुभूतियों के
पीत सरसों खेत ढूँढ़े
पृष्ठ कोरे ले उदासी
कथ्य रस की रेत ढूँढ़े
व्यंजना या लक्षणा के
सूखते हैं कूप प्याऊ।।
वर्ण पर पाला पड़ा जो
वृष्टि से कैसे निपटता
शीत की फिर ओढ़ चादर
पौष शब्दों से लिपटता
लेखनी अब ऊँघती-सी
मौन की यात्रा थकाऊ।।
अनिता सुधीर
काव्य क्यों रहता बिकाऊ🙏🙏अत्यंत सटीक मैम
ReplyDeleteवर्ण पर पाला पड़ा है👌👌👌
ReplyDeleteनव्य बिंब से सज्जित सुगठित व्यंजना युक्त अप्रतिम नवगीत।
नमस्तुभ्यं
Wah, apratim rachna ,lekhni to mukher hai sakhi!
ReplyDeleteधन्यवाद उषा
Deleteअत्यंत संवेदनशील एवं सटीक नवगीत 💐💐💐🙏🏼
ReplyDeleteधन्यवाद दीप्ति जी
Deleteसुंदर नवगीत।
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर नवगीत दीदी👌👌👏👏
ReplyDeleteसटीक बिंब से सुसज्जित उत्कृष्ट रचना
ReplyDeleteसुंदर 👌
ReplyDeleteबहुत सुंदर गीत ।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुती !!