पीर विरह की
पीर जलाती रही विरह की
बनती रीत।
मिले प्रेम में घाव सदा क्यों
बोलो मीत।।
विरह अग्नि में मीरा करती
विष का पान
तप्त धरा पर घूम करें वो
कान्हा गान
कुंज गली में राधा ढूँढे
मुरली तान
कण कण से संगीत पियें वो
रस को छान
व्यथित हृदय से कृष्ण खोजते
फिर वो प्रीत
पीर जलाती ..
तड़प तड़प कर रहते होंगे
राँझा हीर
अलख निरंजन जाप करे वो ,
टिल्ला वीर
बेग!माहिया बन के तड़पे ,
रक्खे धीर,
विरह अग्नि सोहनी की बुझती
नदिया तीर।
ब्याह चिनाब में फिर रचाये
मौनी मीत
पीर जलाये..
जन्मों के वादे कर हमसे
पकड़ा हाथ
अब विरह वेदना को सहते
छोड़ा साथ
बिना गुलाल अब सूखा फाग
सूना माथ
लगे भूत का डेरा घर अब
झेलें क्वाथ ।
पत्तों की खड़खड़ भी करती
अब भयभीत
पीर जलाए..
अनिता सुधीर
पत्तों की खड़खड़ भी करती अब भयभीत🙏🙏वाहहहहह🙏नमन है
ReplyDeleteअति सुंदर एवं भावपूर्ण 💐💐💐💐💐🙏🏼
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-3-22) को "कविता को अब तुम्हीं बाँधना" (चर्चा अंक 4376 )पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
लय में है पीर । अभिनंदन ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर नवगीत सखी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर नवगीत हृदय में उतर गया।
ReplyDeleteसादर
वीतरागी मन का भावुक संवाद प्रिय अनीता जी।जब कोई चाहनेवाला निष्ठुर बनकर दूर चला जाता है तो यही भाव उमडते हैं
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