दीपशिखा
दीपशिखा बनकर सदा जली ,
मेरे पथ पर रहा अंधेरा,
लपट बना कर चिंगारी की ,
लूट रहा सुख चैन लुटेरा ।
कितने धागे टूटा करते
सूखे अधरों को सिलने में
पहर आठ अब तुरपन करते,
क्षण लगते कुआं भरने में
रिसते घावों की पपड़ी से
पल पल बखिया वही उधेरा
लपट बना कर चिंगारी की ,
लूट रहा सुख चैन लुटेरा ।
पुष्प बिछाये और राह पर
शूल चुभा वो किया बखेरा ।
दुग्ध पिला कर पाला जिसको
वो बाहों का बना सपेरा ।
पीतल उसकी औकात नहीं
गढ़ना चाहे स्वर्ण ठठेरा
लपट बना कर चिंगारी की ,
लूट रहा सुख चैन लुटेरा ।
बन कर रही मोम का पुतला
धीरे धीरे सब पिघल गया
अग्निशिखा अब बनना चाहूँ
कोई मुझको क्यों कुचल गया
अब अंतस की लौ सुलगा कर,
लाना होगा नया सवेरा ।
लपट बना कर चिंगारी की
लूट रहा था चैन लुटेरा ।
अनिता सुधीर
अत्यंत संवेदनशील एवं मर्मस्पर्शी सृजन ❣❣💐💐💐💐🙏🏼
ReplyDeleteभावपूर्ण
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteलाना होगा नया सवेरा🙏🙏 नमन मैम🙏
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
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