Sunday, February 16, 2020

विरह वेदना

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बिंदी माथे पर सजा ,कर सोलह श्रृंगार ।
पिया तुम्हारी राह अब ,अखियां रही निहार ।।

बिस्तर पर की सिलवटें,बोलें पूरी बात ।
साजन हैं परदेश में ,मिला बड़ा आघात ।

पीड़ा मन की क्या कहूँ,रहते सदा उदास।
कैसे दिन अब काटते ,लिये मिलन की आस ।।

तुम बिन सूना जग लगे,भूल गये  दिन रात ।
खान पान की सुधि नहीं,सुख दुख की क्या बात।।

विरह अग्नि में जल रहे ,मिले तनिक ही चैन।
चंचल मन व्याकुल हृदय,हर पल है बैचैन ।।

विरह पीर में तन जले , कीजे कुछ उपचार ।
आओ प्रियतम पास में,तुम जीवन आधार।।

©anita_sudhir

12 comments:

  1. जी आ0 सादर अभिवादन

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  2. बसंत में यह वेदना भला कौन स्त्री सहन कर पाती है ? सुंदर सृजन।

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  3. सुन्दर प्रस्तुति

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (17-02-2020) को 'गूँगे कंठ की वाणी'(चर्चा अंक-3614) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव

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  5. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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  6. वाह !सखी बेहतरीन सृजन
    सादर

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  7. वाह!!!
    विरह वेदना पर बहुत ही लाजवाब प्रस्तुति।

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