Thursday, February 6, 2020

गगन के पार

नवगीत


कल्पना उड़ती हुई ये
पूछती हर बार,
क्या चलोगे साथ मेरे
तुम गगन के पार ।

कितने सावन बीत गये
कभी बुझी न प्यास,
मन धरा बंजर तरसता
बूँद की थी आस ,
व्यथित हृदय चातक बन के
रहा फलक निहार
क्या चलोगे साथ मेरे  ,
तुम गगन के पार ।

अश्व पर हों साथ हम जो
लगती तेरे अँग,
आओ भर लें जीवन में
इंद्रधनुष के रँग ।
छोर पकड़े धूप के हम
रथ पर हो सवार ।
क्या चलोगे साथ मेरे  ,
तुम गगन के पार ।

बनी हैं सहगामिनी जो
बारिश की बूंदे,
कल्पनाओं में विचरते
मन  दादुर कूदे
चाँद का टीका पहन लें,
हों सितारे हार
क्या चलोगे साथ मेरे  ,
तुम गगन के पार ।

अनिता सुधीर










2 comments:

  1. .. वाकई बेहतरीन पंक्तियां क्या चलोगे साथ मेरे गगन के पार.. मनुहार ,प्यार से उद्धृत पंक्तियां कविता को एक नया रूप दे रही हैं

    ReplyDelete
  2. जी सादर अभिवादन

    ReplyDelete

संसद

मैं संसद हूँ... "सत्यमेव जयते" धारण कर,लोकतंत्र की पूजाघर मैं.. संविधान की रक्षा करती,उन्नत भारत की दिनकर मैं.. ईंटो की मात्र इमार...