मापनी - गालगा गालगा गालगा गालगा
स्त्रगविनि छन्द
समान्त - इयाँ
पदान्त - आजकल
गीतिका
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खोलते ही कहाँ खिड़कियां आजकल ,
झाँकती रह गयीं रश्मियां आजकल ।
प्यार की चाह में मन धरा सूखती ,
नफरतों की गिरे बिजलियाँ आजकल।
बोलते ही रहे हम सदा तौलकर,
प्रेम में फिर बढ़ी दूरियां आजकल ।
खो गये भाव अब शब्द मिलते नहीं
भेजते हैं कहाँ पातियाँ आजकल ।
शाम होने लगी जो सफर की यहाँ ,
अब डराने लगी आंधियाँ आजकल।
दाँव देखो सियासी चले जा रहे
घर जला सेंकते रोटियां आजकल ।
अनिता सुधीर
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