नव गीत
निश्चल छन्द पर आधारित
***
पंक्ति
पीर जलाती आज विरह की ,बनती रीत।
**
पीर जलाती आज विरह की,
बनती रीत,
मिले प्रेम में घाव सदा से,
बोलो मीत ।
विरह अग्नि में मीरा करती ,
विष का पान,
तप्त धरा पर घूम करें वो,
कान्हा गान ।
कुंज गली में राधा ढूँढे ,
मुरली तान ,
कण कण से संगीत पियें वो,
रस को छान ।
व्यथित हृदय से कृष्ण खोजते,
फिर वो प्रीत ,
पीर जलाती आज विरह की,
बनती रीत ।
तड़प तड़प कर कैसे जीये ,
राँझा हीर,
अलख निरंजन जाप करे वो ,
टिल्ला वीर।
बेग!माहिया बन के तड़पे ,
रक्खे धीर,
विरह अग्नि सोहनी की बुझे ,
नदिया तीर।
ब्याह रचाते चिनाब में वो ,
मौनी मीत ,
पीर जलाये आज विरह फिर,
बनती रीत ।
जन्मों के वादे कर हमसे,
पकड़ा हाथ,
विरह की वेदना को सहते ,
छोड़ा साथ।
बिना गुलाल अब सूखा फाग,
सूना माथ,
घर लगे अब भूत का डेरा,
झेलें क्वाथ ।
पत्तों की खड़खड़ भी करती,
है भयभीत ,
पीर जलाये आज विरह फिर,
बनती रीत ।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 24 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteकमाल का नवगीत..... भावपक्ष और शिल्प दोनों ही लाजवाब.....
बधाई अनीता जी शानदार सृजन हेतु।
सुधा जी हार्दिक आभार
Delete