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सुनते सुनते थक गया हूँ कि दुनिया रंगमंच है और तू किरदार..
मैं ही सदैव क्यों किरदार बनूँ !
अब नहीं जीना मुझे ये जीवन.
मेरी डोर सदैव किसी के हाथ में क्यों रहे ...
कहते हुए अति क्रोध में चिल्लाया था "तन "
मेरा अपना " तन " ...
आज से मैं ही रंगमंच हूँ...
यदि मैं रंगमंच तो फिर किरदार कौन ?
अकुलाहट भरे " मन " ने कोने से दबी आवाज में कहा अब मैं किरदार हूँ तुम्हारा..
तुम किरदार बन मनमानी करते रहे और पतन की ओर जा रहे हो !
मुझे तुम्हारे इस तन के रंगमंच पर अपना किरदार निभाना है और अभिनय को वास्तविक रूप देना है।
बाहर की आवाजें कैमरा, लाइट ,साउंड, कट का शोर
कुर्सियों को खाली करता जा रहा है।
अब अन्तर्मन के लाइट और साउंड को सुन अभिनय करना है ..
नेपथ्य से नई आवाजें आने लगी हैं..
अनिता सुधीर आख्या
बहुत ही सुंदर दार्शनिक भाव!!!
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteअत्यंत सटीक एवं प्रभावशाली सृजन 💐💐💐👏👏🙏🏼
ReplyDeleteहार्दिक आभार दीप्ति जी
Deleteअद्भुत🙏
ReplyDeleteवाह, क्या बात है
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteवाह! मन यदि सारथी बनकर बागडोर सम्भाल ले तब क्या मुमकिन नहीं बंदे के लिए
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
ReplyDeleteवाह। अद्भुत दार्शनिक भाव
ReplyDeleteआज से मैं ही रंगमंच हूँ...वाह!क्या खूब कहा।
ReplyDeleteसादर
अद्भुत रचना!
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