Monday, September 30, 2019

*दक्षिणा*

'मॉम पंडित जी का पेमेंट कर दो '
सुन कर इस पीढ़ी के श्रीमुख से
संस्कृति कोने में खड़ी कसमसाई थी
सभ्यता दम तोड़ती नजर आई थी ।

मैं घटना की मूक साक्षी बनी
पेमेंट और दक्षिणा में उलझी रही,
आते जाते गडमड करते विचारों को
आज के परिपेक्ष्य में सुलझाती रही।

दक्षिणा का सार्थक अर्थ बताने
 उम्मीद लिए बेटे के पास आई,
पूजन सम्पन्न कराने पर दी जाने
वाली श्रद्धापूर्वक  राशि बताई ।

एकलव्य और आरुणि की कथा सुना
गुरू दक्षिणा का महत्व समझाई ,
ब्राह्मण और गुरु  चरणों में नमन कर
उसे अपनी संस्कृति की दुहाई दे आईं ।

सुनते ही उसके चेहरे पर विद्रूप हँसी नजर आयी
ऐसे गुरु अब कहाँ मिलते मेरी भोली भाली माई ,
अकाट्य तर्कों से वो अपने को सही कहता रहा
मैं स्तब्ध उसे कर्तव्य निभाने को कहती आई ।

न ही वैसे गुरु रहे ,न ही वैसे शिष्य
दक्षिणा देने और लेने की सुपात्रता प्रश्नचिह्न बनी
विक्षिप्त सी मैं दो  कालखंड में भटकती रही,
दक्षिणा के सार्थक अर्थ को सिद्ध करती रही ।

प्रथम गुरू माँ  होने का मैं कर्तव्य  निभा न पाई
अपनी संस्कृति  संस्कार से अगली पीढ़ी को
परिचित करा न पाई
दोष मेरा भी था ,दोष उनका भी है
बदलते जमाने के साथ सभी ने तीव्र रफ्तार पाई।

असफल होने के बावजूद बेटे से अपनी दक्षिणा मांग आयी
तुम्हारे ,धन दौलत सोने चांदी ,मकान से सरोकार नहीं मुझे
बस तू नेक इंसान बन कर जी ले अपनी जिंदगी
इंसानियत रग रग में हो,उससे अपना पेमेंट माँग आयी।
©anita_sudhir

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 01 अक्टूबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. संस्कार खो से रहे है
    क्योंकि वंशानुगत नहीं रहे।
    सुंदर।

    पधारे शून्य पार 

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