Sunday, November 28, 2021

शून्यता


 

बोले मन की शून्यता

क्यों डोले निर्वात


कठपुतली सी नाचती

थामे दूजा डोर 

सूत्रधार बदला किये 

पकड़ काठ की छोर

मर्यादा घूँघट लिए

सहे कुटिल आघात।।


चली ध्रुवों के मध्य ही 

भूली अपनी चाह 

पायल की थी बेड़ियां

चाही सीधी राह

ढूँढ़ रही अस्तित्व को 

बहता भाव प्रपात।।


अम्बर के आँचल तले

नहीं मिली है छाँव

कुचली दुबकी है खड़ी

आज माँगती ठाँव

आज थमा दो डोर को

पीत पड़े अब गात।।


चित्र गूगल से साभार

15 comments:

  1. Replies
    1. हार्दिक आभार रानी जी

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  2. अत्यंत सुंदर🙏

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  3. बहुत उत्कृष्ट 🙏🏻

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  4. अति उत्तम एवं संवेदनशील सृजन 💐💐🙏🏼

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  5. हार्दिक आभार शुचिता जी

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  6. मन की इस शून्यता से खुद बाहर आना होता है और बहुत ज़रूरी भी है ...
    सुंदर भावपूर्ण रचना ...

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  7. कविता को पढ़कर और इसके भाव को ठीक से समझकर आंखें नम हो आई हैं।

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