बोले मन की शून्यता
क्यों डोले निर्वात
कठपुतली सी नाचती
थामे दूजा डोर
सूत्रधार बदला किये
पकड़ काठ की छोर
मर्यादा घूँघट लिए
सहे कुटिल आघात।।
चली ध्रुवों के मध्य ही
भूली अपनी चाह
पायल की थी बेड़ियां
चाही सीधी राह
ढूँढ़ रही अस्तित्व को
बहता भाव प्रपात।।
अम्बर के आँचल तले
नहीं मिली है छाँव
कुचली दुबकी है खड़ी
आज माँगती ठाँव
आज थमा दो डोर को
पीत पड़े अब गात।।
चित्र गूगल से साभार
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक आभार रानी जी
Deleteअत्यंत सुंदर🙏
ReplyDeleteधन्यवाद गुंजित
Deleteबहुत उत्कृष्ट 🙏🏻
ReplyDeleteGood one.
ReplyDeleteअति उत्तम एवं संवेदनशील सृजन 💐💐🙏🏼
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteहार्दिक आभार शुचिता जी
ReplyDeleteमन की इस शून्यता से खुद बाहर आना होता है और बहुत ज़रूरी भी है ...
ReplyDeleteसुंदर भावपूर्ण रचना ...
अति सुंदर
ReplyDeleteDhanyawad
Deleteकविता को पढ़कर और इसके भाव को ठीक से समझकर आंखें नम हो आई हैं।
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