*दीप*
दीप हो उर द्वार पर जब
जग प्रफुल्लित जगमगाए
झोपड़ी सहती व्यथा है
द्वार पर लक्ष्मी उदासी
उतरनों की जब दिवाली
फिर भरे कैसे उजासी
जो विवशता दूर भागे
फिर हँसी भी खिलखिलाए।।
दीप हो उर द्वार पर जब
जग प्रफुल्लित जगमगाए
जब अमीरों की तिजोरी
खोलती हो नित्य ताला
निर्धनों के गात भी जब
ओढ़ते हों नव दुशाला
फिर कली महकी वहाँ पर
गीत भँवरा गुनगुनाए।।
दीप हो उर द्वार पर जब
जग प्रफुल्लित जगमगाए
तेल अंतस का जला कर
ज्योति की हो वर्तिका अब
यह अँधेरा दूर भागे
कर अहम को मृत्तिका अब
कालिमा में लालिमा हो
भोर भी फिर गुदगुदाए।।
दीप हो उर द्वार पर जब
जग प्रफुल्लित जगमगाए
बहुत खूब 👌
ReplyDeleteजी धन्यवाद
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 08 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद आ0
Deleteउत्तम संदेश। उत्तम भाव
ReplyDeleteअति सुंदर एवं जगमगाती रचना 🙏🏼💐💐
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteबहुत उम्दा🙏🙏👏👏
ReplyDeleteधन्यवाद गुंजित
Deleteऐसी असाधारण कविता किसी साधारण लेखनी से नहीं फूट सकती। कवयित्री की अद्भुत प्रतिभा को नमन।
ReplyDeleteआ0 आपके स्नेह के लिए हार्दिक आभार
Deleteजब अमीरों की तिजोरी
ReplyDeleteखोलती हो नित्य ताला
निर्धनों के गात भी जब
ओढ़ते हों नव दुशाला
फिर कली महकी वहाँ पर
गीत भँवरा गुनगुनाए।।
दीप हो उर द्वार पर जब
जग प्रफुल्लित जगमगाए
वाह!!!
परोपकार एवं कल्याणकारी भावना के साथ लाजवाब
नवगीत।
अप्रतिम भाव, अभिनव व्यंजनाएं , अभिराम सृजन।
ReplyDeleteअद्भुत।🌷
हार्दिक आभार सखि
Deleteवाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteअप्रतिम
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसुंदर उत्कृष्ट रचना ।
ReplyDeleteजी आभार
Delete