Thursday, December 2, 2021

तेल बाती को पिलाऊँ


 चित्र गूगल से साभार

काँपती लौ श्वास चाहे

तेल बाती को पिलाऊँ


कठघरे तन की सलाखें

दागती हैं रीतियों को

फिर धुँआ कैसे सँभाले

राख होती नीतियों को

तब शिखा की दीप्ति सोचे

मर्म जीवन जान पाऊँ।।


फूस की छत पूछती है

खम्भ तेरा क्या ठिकाना

छप्परों की मौज मस्ती

भरभरा कर फिर गिराना

ढाल पर जीवन डरा है

अग्नि से तृण को बचाऊँ।


सुर लहरियाँ डूबतीं अब

ताल तिनके ढूँढ़तीं है

पृष्ठ थक कर रो रहे जो

लेखनी सिर फोड़ती है

व्याकरण उलझा हुआ सा

छन्द कैसे छाँट लाऊँ।।


26 comments:

  1. पृष्ठ थक कर रो रहे जो...🙏🙏 अद्भुत। नमन

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  2. तुम्हारे विचारों के पंख कितने सुंदर और रंगीले हैं .. नित नए नए रंग भर हमें निशब्द कर देती हैं ।

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  3. शुक्रिया दोस्त

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  4. अत्यंत उत्कृष्ट एवं संवेदनशील सृजन 💐💐🙏🏼🙏🏼

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  5. बहुत सुंदर भावपूर्ण एवं सार्थक सृजन 🙏🙏💐💐💐

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  6. धन्यवाद सरोज जी

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  7. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(०३-१२ -२०२१) को
    'चल जिंदगी तुझको चलना ही होगा'(चर्चा अंक-४२६७)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  8. बेह्तरीन सृजन

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  9. वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब नवगीत
    अद्भुत बिम्ब एवं व्यंजनाएं....

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  10. अति सुन्दर रचना

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  11. बहुत ही उम्दा सृजन

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  12. कविता क्या है - यदि किसी को जानना-समझना हो तो ऐसी कविताओं का पारायण करे। महादेवी जी की कविताओं का स्मरण करवा दिया इस कविता ने।

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    1. आ0 आपकी टिप्पणी प्रेरणा देती है
      सादर आभार

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