चित्र गूगल से साभार
काँपती लौ श्वास चाहे
तेल बाती को पिलाऊँ
कठघरे तन की सलाखें
दागती हैं रीतियों को
फिर धुँआ कैसे सँभाले
राख होती नीतियों को
तब शिखा की दीप्ति सोचे
मर्म जीवन जान पाऊँ।।
फूस की छत पूछती है
खम्भ तेरा क्या ठिकाना
छप्परों की मौज मस्ती
भरभरा कर फिर गिराना
ढाल पर जीवन डरा है
अग्नि से तृण को बचाऊँ।
सुर लहरियाँ डूबतीं अब
ताल तिनके ढूँढ़तीं है
पृष्ठ थक कर रो रहे जो
लेखनी सिर फोड़ती है
व्याकरण उलझा हुआ सा
छन्द कैसे छाँट लाऊँ।।
वाह वाह!!
ReplyDeleteवाह वाह
ReplyDeleteSunder
ReplyDeleteआभ्गर उषा
Deleteपृष्ठ थक कर रो रहे जो...🙏🙏 अद्भुत। नमन
ReplyDeleteधन्यवाद गुंजित
Deleteतुम्हारे विचारों के पंख कितने सुंदर और रंगीले हैं .. नित नए नए रंग भर हमें निशब्द कर देती हैं ।
ReplyDeleteशुक्रिया दोस्त
ReplyDeleteअत्यंत उत्कृष्ट एवं संवेदनशील सृजन 💐💐🙏🏼🙏🏼
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण एवं सार्थक सृजन 🙏🙏💐💐💐
ReplyDeleteधन्यवाद सरोज जी
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(०३-१२ -२०२१) को
'चल जिंदगी तुझको चलना ही होगा'(चर्चा अंक-४२६७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक आभार सखि
DeleteBahut hi sundar....
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद
Deleteबेह्तरीन सृजन
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब नवगीत
अद्भुत बिम्ब एवं व्यंजनाएं....
जी धन्यवाद
Deleteअति सुन्दर रचना
ReplyDeleteआ0 हार्दिक आभार
Deleteबहुत ही उम्दा सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteकविता क्या है - यदि किसी को जानना-समझना हो तो ऐसी कविताओं का पारायण करे। महादेवी जी की कविताओं का स्मरण करवा दिया इस कविता ने।
ReplyDeleteआ0 आपकी टिप्पणी प्रेरणा देती है
Deleteसादर आभार