स्वप्न अधूरे कह रहे
चलो गगन की ठाँव।
काँटे साथी राह के
मंजिल खड़ी सुदूर
बोल उठे हैं घाव भी
थक कर होते चूर
बनी पैंजनी बेड़ियाँ
घायल करती पाँव।।
मन पक्षी बन उड़ रहा
मार कुलाँचे जोर
फिर सूरज की रश्मियाँ
पकड़ाती हैं छोर
देख हुए तब बावरे
शीघ्र मिले वो गाँव।।
ख्याली पुलाव कब पके
चाहे भट्टी आँच
ताप सहे परिश्रम का
फिर निखरे है काँच
नैन खोल के सो रहे
मुस्काती तब छाँव।।
अनिता सुधीर
चित्र गूगल से
बहुत सुंदर भावपूर्ण नवगीत 👏👏👏💐💐
ReplyDeleteधन्यवाद सरोज जी
Deleteसपने देखें और उनको पूरा करने के लिए श्रम करें ,तब बात बनती है ।।बेहतरीन
ReplyDeleteधन्यवाद संगीता जी
Deleteबोल उठे हैं घाव भी👏👏👏 उत्कृष्ट मैम🙏
ReplyDeleteधन्यवाद गुंजित
Deleteअति सुंदर नवगीत 💐💐💐
ReplyDeleteहार्दिक आभार दीप्ति जी
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(३०-१२ -२०२१) को
'मंज़िल दर मंज़िल'( चर्चा अंक-४२९४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
धन्यवाद अनिता जी
Deleteवाह बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ0
Deleteअभिनव व्यंजना के साथ सुंदर नवगीत सखी।
ReplyDeleteधन्यवाद सखि
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सारगर्भित...
ReplyDeleteलाजवाब नवगीत
वाह!!!
हार्दिक आभार आ0
Deleteनैन खोल के सो रहे..... बहुत खूब
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